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न त्वा॑ गभी॒रः पु॑रुहूत॒ सिन्धु॒र्नाद्र॑यः॒ परि॒ षन्तो॑ वरन्त। इ॒त्था सखि॑भ्य इषि॒तो यदि॒न्द्राऽऽदृ॒ळ्हं चि॒दरु॑जो॒ गव्य॑मू॒र्वम्॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

na tvā gabhīraḥ puruhūta sindhur nādrayaḥ pari ṣanto varanta | itthā sakhibhya iṣito yad indrā dṛḻhaṁ cid arujo gavyam ūrvam ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

न। त्वा॒। ग॒भी॒रः। पु॒रु॒ऽहू॒त॒। सिन्धुः॑। न। अद्र॑यः। परि॑। सन्तः॑। व॒र॒न्त॒। इ॒त्था। सखि॑ऽभ्यः। इ॒षि॒तः। यत्। इ॒न्द्र॒। आ। दृ॒ळ्हम्। चि॒त्। अरु॑जः। गव्य॑म्। ऊ॒र्वम्॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:32» मन्त्र:16 | अष्टक:3» अध्याय:2» वर्ग:11» मन्त्र:6 | मण्डल:3» अनुवाक:3» मन्त्र:16


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (पुरुहूत) बहुतों से प्रशंसा किये गये (इन्द्र) अत्यन्त ऐश्वर्य्य के दाता राजन् ! जिन (त्वा) आपको (गभीरः) गाम्भीर्य गुणों से युक्त (सिन्धुः) समुद्र (न) नहीं (परि) सब ओर से (वरन्त) वारण करते हैं (अद्रयः) मेघ वा पर्वत (सन्तः) वर्त्तमान होते हुए (न) नहीं सब ओर से वारण करते हैं (यत्) जो (दृढम्) स्थिर (चित्) भी (गव्यम्) गौओं का (ऊर्वम्) निरोधस्थान का (आ, अरुजः) भङ्ग करते हो वह (सखिभ्यः) मित्रों के लिये (इषितः) प्रेरित हुए आप (इत्था) इस प्रकार किस जनसे सत्कार नहीं करने योग्य होवैं ॥१६॥
भावार्थभाषाः - हे विद्वान् लोगो ! जैसे समुद्र और पर्वत सूर्य्य को निवारण नहीं कर सकते, वैसे ही बहुत मित्रोंवाले जन शत्रुओं से निवारण करने से शक्य नहीं होते हैं ॥१६॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे पुरुहूतेन्द्र राजन् यं त्वा गभीरः सिन्धुर्न परिवरन्ताऽद्रयः सन्तो न परिवरन्त यद्यश्चिद् दृढं गव्यमूर्वमारुजः स सखिभ्य इषितस्त्वमित्था केनासत्कर्त्तव्यो भवेः ॥१६॥

पदार्थान्वयभाषाः - (न) निषेधे (त्वा) त्वाम् (गभीरः) गाम्भीर्यगुणोपेतः (पुरुहूत) बहुभिः प्रशंसित (सिन्धुः) समुद्रः (न) (अद्रयः) मेघाः पर्वता वा (परि) सर्वतः (सन्तः) (वरन्त) वारयन्ति (इत्था) अनेन प्रकारेण (सखिभ्यः) मित्रेभ्यः (इषितः) प्रेरितः (यत्) यः (इन्द्र) परमैश्वर्यप्रद (आ) समन्तात् (दृढम्) स्थिरम् (चित्) (अरुजः) रुजति (गव्यम्) गवामिदम् (ऊर्वम्) निरोधस्थानम् ॥१६॥
भावार्थभाषाः - हे विद्वांसो यथा समुद्राः पर्वताश्च सूर्य्यं निवारयितुं न शक्नुवन्ति तथैव बहुमित्राः शत्रुभिर्निरोद्धुमशक्या जायन्ते ॥१६॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे विद्वान लोकांनो! जसे समुद्र व पर्वत सूर्याचे निवारण करू शकत नाहीत तसेच पुष्कळ मित्र असणाऱ्या लोकांचे निवारण शत्रू करू शकत नाहीत. ॥ १६ ॥