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त्वं हि ष्मा॑ च्या॒वय॒न्नच्यु॑ता॒न्येको॑ वृ॒त्रा चर॑सि॒ जिघ्न॑मानः। तव॒ द्यावा॑पृथि॒वी पर्व॑ता॒सोऽनु॑ व्र॒ताय॒ निमि॑तेव तस्थुः॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tvaṁ hi ṣmā cyāvayann acyutāny eko vṛtrā carasi jighnamānaḥ | tava dyāvāpṛthivī parvatāso nu vratāya nimiteva tasthuḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

त्वम्। हि। स्म॒। च्या॒वय॑न्। अच्यु॑तानि। एकः॑। वृ॒त्रा। चर॑सि। जिघ्न॑मानः। तव॑। द्यावा॑पृथि॒वी इति॑। पर्व॑ता॒सः। अनु॑। व्र॒ताय॑। निमि॑ताऽइव। त॒स्थुः॒॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:30» मन्त्र:4 | अष्टक:3» अध्याय:2» वर्ग:1» मन्त्र:4 | मण्डल:3» अनुवाक:3» मन्त्र:4


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे राजन् ! (त्वम्) आप (एकः) सहाय के विना स्वयं बलवान् (हि) जिससे (अच्युतानि) प्रबल शत्रुओं की सेनाओं को (च्यावयन्) भय से गिराते हुए (स्म) ही वर्त्तमान हैं जैसे सूर्य के सम्बन्ध में (द्यावापृथिवी) प्रकाश और भूमि (पर्वतासः) पर्वत के सदृश बड़े-बड़े मेघ और (वृत्रा) मेघों के टुकड़े रूप बद्दल (निमितेव) जैसे निरन्तर प्रमाण किये हुए पदार्थ वैसे (तस्थुः) स्थिर होते हैं वैसे ही (अनु) (व्रताय) सत्यभाषण आदि कर्म वा उत्तम स्वभाव के लिये शत्रुओं का (जिघ्नमानः) नाशकर्त्ता होओ तो (ते) आपका निश्चय से विजय होवे ॥४॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे सूर्य नियमपूर्वक वर्त्तमान हो के निवारण करने योग्य पदार्थों का निवारण करके रक्षा करने योग्य पदार्थों की रक्षा करता है, वैसे ही आप वर्जने योग्य शत्रुओं का वर्जन करके प्रजाओं की निरन्तर रक्षा कीजिये ॥४॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे राजन् ! त्वमेको ह्यच्युतानि च्यावयन् स्म चरसि यथा सूर्य्यस्य सम्बन्धे द्यावापृथिवी पर्वतासो वृत्रा निमितेव तस्थुस्तथैवानुव्रताय शत्रून् जिघ्नमानो भवेत्तर्हि ते तव ध्रुवो विजयः स्यात् ॥४॥

पदार्थान्वयभाषाः - (त्वम्) राजन् (हि) (स्म) एव। अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (च्यावयन्) प्रचालयन् निपातयन् (अच्युतानि) अक्षीणानि शत्रुसैन्यानि (एकः) असहायः (वृत्रा) मेघावयवरूपाणि घनानि (चरसि) (जिघ्नमानः) हनन् सन् (तव) (द्यावापृथिवी) प्रकाशभूमी (पर्वतासः) पर्वताकारा मेघाः (अनु) (व्रताय) सत्यभाषणादिकर्मणे तच्छीलाय वा (निमितेव) नितरां मितानीव (तस्थुः) तिष्ठन्ति ॥४॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। यथा सूर्य्यो नियमेन वर्त्तित्वा निवारणीयानि निवार्य्य रक्षणीयानि रक्षति तथैव भवान् प्रतिषेद्धव्यान् शत्रून्प्रतिषेध्य प्रजाः सततं रक्षेत् ॥४॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - भावार्थ -या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसा सूर्य नियमपूर्वक पदार्थांचे निवारण करून रक्षणीय पदार्थांचे रक्षण करतो, तसेच तू (हे राजा) वर्ज्य करण्यायोग्य शत्रूचे वर्जन करून प्रजेचे निरंतर रक्षण कर. ॥ ४ ॥