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उद्वृ॑ह॒ रक्षः॑ स॒हमू॑लमिन्द्र वृ॒श्चा मध्यं॒ प्रत्यग्रं॑ शृणीहि। आ कीव॑तः सल॒लूकं॑ चकर्थ ब्रह्म॒द्विषे॒ तपु॑षिं हे॒तिम॑स्य॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ud vṛha rakṣaḥ sahamūlam indra vṛścā madhyam praty agraṁ śṛṇīhi | ā kīvataḥ salalūkaṁ cakartha brahmadviṣe tapuṣiṁ hetim asya ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

उत्। वृ॒ह॒। रक्षः॑। स॒हऽमू॑लम्। इ॒न्द्र॒। वृ॒श्च। मध्य॑म्। प्रति॑। अग्र॑म्। शृ॒णी॒हि॒। आ। कीव॑तः। स॒ल॒लूक॑म्। च॒क॒र्थ॒। ब्र॒ह्म॒ऽद्विषे॑। तपु॑षिम्। हे॒तिम्। अ॒स्य॒॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:30» मन्त्र:17 | अष्टक:3» अध्याय:2» वर्ग:4» मन्त्र:2 | मण्डल:3» अनुवाक:3» मन्त्र:17


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (इन्द्र) दुष्ट पुरुषों के नाशकर्त्ता ! आप (उत्) उत्तमता के साथ (वृह) सुखवृद्धि करो (सहमूलम्) जड़सहित (रक्षः) बुरे आचार को (वृश्च) तोड़ो (अस्य) इसके ऊपर (तपुषिम्) प्रतापयुक्त (हेतिम्) वज्र को फेंक के इसके (मध्यम्) मध्य में उत्पन्न हुए और (अग्रम्) अग्रभाग के (प्रति) प्रति (शृणीहि) नाश करो तथा (ब्रह्मद्विषे) ब्रह्म परमात्मा वा वेद के लिये वर्त्तमान (सललूकम्) अच्छी तरह लोभी (कीवतः) कितनों को (आ) (चकर्थ) सब प्रकार काटो ॥१७॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को चाहिये कि कभी भी धार्मिक पुरुषों के ऊपर शस्त्रों का प्रहार न करें और दुष्ट पुरुषों को शस्त्रों से मारे विना न छोड़ें, ऐसा करने से सब प्रकार सुख की वृद्धि होवे ॥१७॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे इन्द्र ! त्वमुद्वृह सहमूलं रक्षो वृश्चास्योपरि तपुषिं हेतिं प्रक्षिप्यास्य मध्यमग्रं च प्रतिशृणीहि ब्रह्मद्विषे वर्त्तमानं सललूकं कीवतश्चाऽऽचकर्थ ॥१७॥

पदार्थान्वयभाषाः - (उत्) उत्कृष्टे (वृह) वर्धस्व (रक्षः) दुष्टाचारम् (सहमूलम्) मूलेन सह वर्त्तमानम् (इन्द्र) दुष्टानां विदारक (वृश्च) छिन्धि। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (मध्यम्) मध्ये भवम् (प्रति) (अग्रम्) अग्रभागम् (शृणीहि) हिन्धि (आ) (कीवतः) कियतः। अत्र वर्णव्यत्ययेन यस्य स्थाने वः। (सललूकम्) सम्यक् लुब्धम् (चकर्थ) कृन्त (ब्रह्मद्विषे) यो ब्रह्म परमात्मानं वेदं वा द्वेष्टि तस्मै (तपुषिम्) प्रतापयुक्तम् (हेतिम्) वज्रम् (अस्य) एतस्योपरि ॥१७॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यैः कदाचिदपि धार्मिकाणामुपरि शस्त्रप्रहारो नैव कार्यो न च शस्त्रैर्हननेन विना दुष्टास्त्यक्तव्याः। एवं कृते सति सर्वतो सुखस्य वृद्धिः स्यात् ॥१७॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - भावार्थ -माणसांनी कधीही धार्मिक पुरुषांवर शस्त्रांचा प्रहार करू नये व दुष्ट शत्रूंना शस्त्रांनी मारल्याशिवाय राहू नये. असे केल्याने सर्व प्रकारच्या सुखाची वृद्धी होते. ॥ १७ ॥