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मन्थ॑ता नरः क॒विमद्व॑यन्तं॒ प्रचे॑तसम॒मृतं॑ सु॒प्रती॑कम्। य॒ज्ञस्य॑ के॒तुं प्र॑थ॒मं पु॒रस्ता॑द॒ग्निं न॑रो जनयता सु॒शेव॑म्॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

manthatā naraḥ kavim advayantam pracetasam amṛtaṁ supratīkam | yajñasya ketum prathamam purastād agniṁ naro janayatā suśevam ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

मन्थ॑त। न॒रः॒। क॒विम्। अद्व॑यन्तम्। प्रऽचे॑तसम्। अ॒मृत॑म्। सु॒ऽप्रती॑कम्। य॒ज्ञस्य॑। के॒तुम्। प्र॒थ॒मम्। पु॒रस्ता॑त्। अ॒ग्निम्। न॒रः॒। ज॒न॒य॒त॒। सु॒ऽशेव॑म्॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:29» मन्त्र:5 | अष्टक:3» अध्याय:1» वर्ग:32» मन्त्र:5 | मण्डल:3» अनुवाक:2» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (नरः) नायको ! आप लोग (कविम्) तेजस्वी स्वरूपयुक्त (अद्वयन्तम्) अपने केवल रूप से रहित के सदृश आचरण करते हुए (प्रचेतसम्) अतिशय प्रकटकर्त्ता (अमृतम्) अपने स्वरूप से नाशरहित (सुप्रतीकम्) उत्तम प्रकार विश्वासकर्त्ता (अग्निम्) अग्नि का (मन्थत) मन्थन करो। हे (नरः) प्रधान पुरुषो ! (यज्ञस्य) अहिंसारूप यज्ञ के (केतुम्) पताका के सदृश जाननेवाले (प्रथमम्) प्रसिद्ध (सुशेवम्) सुन्दर द्रव्यपात्र के सदृश अग्नि को पुरस्तात् प्रथम से उत्पन्न करो ॥५॥
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य मथ कर अग्नि को उत्पन्न करके कार्य्यों को सिद्ध करने की इच्छा करते हैं, वे संपूर्ण ऐश्वर्य्ययुक्त होते हैं ॥५॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे नरो यूयं कविमद्वयन्तं प्रचेतसममृतं सुप्रतीकमग्निं मन्थत। हे नरो यज्ञस्य केतुं प्रथमं सुशेवमग्निं पुरस्ताज्जनयत ॥५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (मन्थत) मन्थनं कुरुत। अत्र संहितायामिति दीर्घः। (नरः) नायकाः (कविम्) क्रान्तदर्शनम् (अद्वयन्तम्) अद्वयमिवाचरन्तम् (प्रचेतसम्) प्रकर्षेण संज्ञापकम् (अमृतम्) स्वरूपेण नाशरहितम् (सुप्रतीकम्) सुष्ठुप्रतीतिकरम् (यज्ञस्य) (केतुम्) ध्वज इव विज्ञापकम् (प्रथमम्) प्रख्यातम् (पुरस्तात्) प्रथमतः (अग्निम्) पावकम् (नरः) नेतारः (जनयत)। अत्र संहितायामिति दीर्घः। (सुशेवम्) शोभनं निधिमिव वर्त्तमानम् ॥५॥
भावार्थभाषाः - ये मनुष्या मथित्वाग्निं जनयित्वा कार्य्याणि साद्धुमिच्छन्ति ते सकलैश्वर्यसंपन्ना जायन्ते ॥५॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जी माणसे मंथन करून अग्नी उत्पन्न करून कार्य सिद्ध करण्याची इच्छा बाळगतात, ती संपूर्ण ऐश्वर्य प्राप्त करतात. ॥ ५ ॥