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अ॒मि॒त्रा॒युधो॑ म॒रुता॑मिव प्र॒याः प्र॑थम॒जा ब्रह्म॑णो॒ विश्व॒मिद्वि॑दुः। द्यु॒म्नव॒द्ब्रह्म॑ कुशि॒कास॒ एरि॑र॒ एक॑एको॒ दमे॑ अ॒ग्निं समी॑धिरे॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

amitrāyudho marutām iva prayāḥ prathamajā brahmaṇo viśvam id viduḥ | dyumnavad brahma kuśikāsa erira eka-eko dame agniṁ sam īdhire ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒मि॒त्र॒ऽयुधः॑। म॒रुता॑म्ऽइव। प्र॒ऽयाः। प्र॒थ॒म॒ऽजाः। ब्रह्म॑णः। विश्व॑म्। इत्। वि॒दुः॒। द्यु॒म्नऽव॑त्। ब्रह्म॑। कु॒शि॒कासः॑। आ। ई॒रि॒रे॒। एकः॑ऽएकः। दमे॑। अ॒ग्निम्। सम्। ई॒धि॒रे॒॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:29» मन्त्र:15 | अष्टक:3» अध्याय:1» वर्ग:34» मन्त्र:5 | मण्डल:3» अनुवाक:2» मन्त्र:15


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जो (मरुतामिव) मनुष्यों के सदृश (अमित्रायुधः) शत्रुओं के ऊपर शस्त्र चलाने (प्रयाः) शीघ्र चलनेवाले (प्रथमजाः) प्रथम कारण से उत्पन्न (कुशिकासः) उच्च पदवी को प्राप्त (एकएकः) प्रत्येक जन (दमे) गृह में (अग्निम्) अग्नि को (सम्) (ईधिरे) प्रज्वलित करें और जो (ब्रह्मणः) परमात्मा के (विश्वम्) सम्पूर्ण जगत् को (विदुः) जानते हैं वे (इत्) ही (द्युम्नवत्) उत्तम यशयुक्त (ब्रह्म) बहुत धन को (आ, ईरिरे) प्राप्त होते हैं ॥१५॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे पवन सम्पूर्ण स्थानों में प्रबलता से प्राप्त होने, अग्नि आदि पदार्थों को प्रज्वलित करने और संसार में व्यापक होनेवाले सम्पूर्ण जीवों के प्राणों की रक्षा करके आनन्द देते हैं, वैसे ही अग्नि आदि पदार्थों की विद्या युक्त पुरुष सम्पूर्ण जनों के लिये आनन्द देते हैं ॥१५॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे मनुष्या ये मरुतामिवाऽमित्रायुधः प्रयाः प्रथमजाः कुशिकास एकएको दमेऽग्निं समीधिरे ये च ब्रह्मणो विश्वं विदुस्त इदेव द्युम्नवद्ब्रह्मैरिरे ॥१५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अमित्रायुधः) अमित्रेषु शत्रुषु प्रक्षिप्तान्यायुधानि यैस्ते (मरुतामिव) मनुष्याणामिव (प्रयाः) ये सद्यः प्रयान्ति ते (प्रथमजाः) प्रथमात्कारणाज्जातः (ब्रह्मणः) परमात्मनः (विश्वम्) सर्वं जगत् (इत्) एव (विदुः) (द्युम्नवत्) प्रशस्तकीर्त्तिमत् (ब्रह्म) बृहद्धनम् (कुशिकासः) उत्कर्षं प्राप्ताः (आ) (ईरिरे) प्राप्नुवन्ति (एकएकः) जनः (दमे) गृहे (अग्निम्) (सम्) (ईधिरे) प्रदीपयेयुः ॥१५॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। यथा वायवः सर्वत्र विजयिनोऽग्न्यादिप्रदीपका विश्वव्यापिनः सर्वान् जीवयित्वाऽऽनन्दयन्ति तथैवाग्न्यादिपदार्थविद्यायुक्ताः सर्वानानन्दयन्ति ॥१५॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसे वायू संपूर्ण ठिकाणी प्रबलतेने प्राप्त होतात, अग्नी इत्यादी पदार्थांना प्रज्वलित करतात व जगात व्यापक असून सर्व जीवांचे प्राणरक्षक बनून आनंद देतात, तसेच अग्नी इत्यादी पदार्थविद्यायुक्त पुरुष संपूर्ण लोकांना आनंद देतात. ॥ १५ ॥