प्र स॒प्तहो॑ता सन॒काद॑रोचत मा॒तुरु॒पस्थे॒ यदशो॑च॒दूध॑नि। न नि मि॑षति सु॒रणो॑ दि॒वेदि॑वे॒ यदसु॑रस्य ज॒ठरा॒दजा॑यत॥
pra saptahotā sanakād arocata mātur upasthe yad aśocad ūdhani | na ni miṣati suraṇo dive-dive yad asurasya jaṭharād ajāyata ||
प्र। स॒प्तऽहो॑ता। स॒न॒कात्। अ॒रो॒च॒त॒। मा॒तुः। उ॒पऽस्थे॑। यत्। अशो॑चत्। ऊध॑नि। न। नि। मि॒ष॒ति॒। सु॒ऽरणः॑। दि॒वेऽदि॑वे। यत्। असु॑रस्य। ज॒ठरा॑त्। अजा॑यत॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।
स्वामी दयानन्द सरस्वती
पुनस्तमेव विषयमाह।
हे मनुष्या यः सप्तहोताग्निः सनकाज्जातो मातुरुपस्थे प्रारोचत यद्य ऊधन्यशोचद्यः सुरणो दिवेदिवे न निमिषति यद्योऽसुरस्य जठरादजायत तं यथावद्विजानीत ॥१४॥