वांछित मन्त्र चुनें

प्र स॒प्तहो॑ता सन॒काद॑रोचत मा॒तुरु॒पस्थे॒ यदशो॑च॒दूध॑नि। न नि मि॑षति सु॒रणो॑ दि॒वेदि॑वे॒ यदसु॑रस्य ज॒ठरा॒दजा॑यत॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

pra saptahotā sanakād arocata mātur upasthe yad aśocad ūdhani | na ni miṣati suraṇo dive-dive yad asurasya jaṭharād ajāyata ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

प्र। स॒प्तऽहो॑ता। स॒न॒कात्। अ॒रो॒च॒त॒। मा॒तुः। उ॒पऽस्थे॑। यत्। अशो॑चत्। ऊध॑नि। न। नि। मि॒ष॒ति॒। सु॒ऽरणः॑। दि॒वेऽदि॑वे। यत्। असु॑रस्य। ज॒ठरा॑त्। अजा॑यत॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:29» मन्त्र:14 | अष्टक:3» अध्याय:1» वर्ग:34» मन्त्र:4 | मण्डल:3» अनुवाक:2» मन्त्र:14


बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जो (सप्तहोता) सात प्राणों से ग्रहण करने योग्य अग्नि (सनकात्) अनादि परम्परा से सिद्ध कारण से उत्पन्न हुआ (मातुः) वायु के (उपस्थे) समीप में (प्रारोचत) प्रकाशित होता है (यत्) जो (ऊधनि) रात्रि में (अशोचत्) प्रकाशित होता है और जो (सुरणः) श्रेष्ठ युद्ध का साधन (दिवेदिवे) प्रतिदिन (न) (नि) अत्यन्त (मिषति) नहीं सींचता है (यत्) जो (असुरस्य) रूप से रहित वायु के (जठरात्) मध्य से (अजायत) उत्पन्न होता है, उसको अच्छे प्रकार जानो ॥१४॥
भावार्थभाषाः - जो अग्नि अन्न आदि को शुष्क करनेवाला वायु रूप कारण से प्रसिद्ध प्रकृति नामक कारण से उत्पन्न हुआ है, उसको जानकर बहुत से व्यवहारों को सकल जन प्रसिद्ध करें ॥१४॥
बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे मनुष्या यः सप्तहोताग्निः सनकाज्जातो मातुरुपस्थे प्रारोचत यद्य ऊधन्यशोचद्यः सुरणो दिवेदिवे न निमिषति यद्योऽसुरस्य जठरादजायत तं यथावद्विजानीत ॥१४॥

पदार्थान्वयभाषाः - (प्र) (सप्तहोता) सप्त प्राणा होतार आदातारो यस्य (सनकात्) सनातनात्कारणात् (अरोचत) प्रकाशते (मातुः) वायोः (उपस्थे) समीपे (यत्) यः (अशोचत्) दीप्यते (ऊधनि) रात्रौ। अत्र वर्णव्यत्ययेन सस्य नः। ऊध इति रात्रिना०। निघं० १। ७। (न) (नि) नितराम् (मिषति) सिञ्चति (सुरणः) शोभनो रणः सङ्ग्रामो यस्मात्सः (दिवेदिवे) प्रतिदिनम् (यत्) यस्मात् (असुरस्य) रूपरहितस्य वायोः (जठरात्) मध्यात् (अजायत) जायते ॥१४॥
भावार्थभाषाः - योऽग्निः शोषको वायुनिमित्तः प्रकृत्याख्यात्कारणाज्जातोऽस्ति तं विज्ञाय बहून् व्यवहारान्सर्वे प्रकाशयन्तु ॥१४॥
बार पढ़ा गया

माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जो अग्नी शुष्क करणारा, वायूरूप कारणाने प्रसिद्ध, प्रकृती कारणापासून उत्पन्न झालेला आहे, त्याला जाणून बऱ्याच व्यवहारांना सर्व लोकांनी प्रकट करावे. ॥ १४ ॥