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अजी॑जनन्न॒मृतं॒ मर्त्या॑सोऽस्रे॒माणं॑ त॒रणिं॑ वी॒ळुज॑म्भम्। दश॒ स्वसा॑रो अ॒ग्रुवः॑ समी॒चीः पुमां॑सं जा॒तम॒भि सं र॑भन्ते॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ajījanann amṛtam martyāso sremāṇaṁ taraṇiṁ vīḻujambham | daśa svasāro agruvaḥ samīcīḥ pumāṁsaṁ jātam abhi saṁ rabhante ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अजी॑जनन्। अ॒मृत॑म्। मर्त्या॑सः। अ॒स्रे॒माण॑म्। त॒रणि॑म्। वी॒ळुऽज॑म्भम्। दश॑। स्वसा॑रः। अ॒ग्रुवः॑। स॒मी॒चीः। पुमां॑सम्। जा॒तम्। अ॒भि। सम्। र॒भ॒न्ते॒॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:29» मन्त्र:13 | अष्टक:3» अध्याय:1» वर्ग:34» मन्त्र:3 | मण्डल:3» अनुवाक:2» मन्त्र:13


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - जैसे (अग्रुवः) आगे चलनेवाली (समीचीः) उत्तम प्रकार मिली हुईं (दश) दश संख्या परिमित (स्वसारः) बहिनों के समान वर्त्तमान अङ्गुलियाँ (जातम्) प्रसिद्ध (पुमांसम्) पुरुषार्थ से युक्त मनुष्य को (अभि) सम्मुख (सम्) उत्तम प्रकार (रभन्ते) प्रवृत्त करती हैं वैसे (मर्त्यासः) मनुष्य (वीळुजम्भम्) मुख के सदृश ज्वाला से शोभित (तरणिम्) मार्गों से यत्न द्वारा इष्ट स्थान में पहुँचानेवाला (अस्रेमाणम्) नाशरहित (अमृतम्) नित्य अग्नि को (अजीजनन्) उत्पन्न करते हैं ॥१३॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे हाथों की अङ्गुलियाँ परस्पर मिली हुई शरीरधारी मनुष्य को कार्य्यों में प्रवृत्त करती हैं, वैसे ही विद्वान् पुरुष अग्नि को क्रिया में लगाते अर्थात् उसके द्वारा कार्य्य सिद्ध करते हैं ॥१३॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

यथा अग्रुवः समीचीर्दश स्वसारो जातं पुमांसमभि संरभन्ते तथा मर्त्यासो वीडुजम्भं तरणिमस्रेमाणममृतमग्निमजीजनन् ॥१३॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अजीजनन्) जनयन्ति (अमृतम्) नाशरहितम् (मर्त्यासः) मनुष्याः (अस्रेमाणम्) अक्षयम् (तरणिम्) अध्वनां तारकम् (वीळुजम्भम्) वीळु बलवज्जम्भो मुखमिव ज्वाला यस्य तम् (दश) (स्वसारः) भगिन्य इव वर्त्तमाना अङ्गुलयः। स्वसार इत्यङ्गुलिना०। निघं०। २। ५। (अग्रुवः) या अग्रे गच्छन्ति ताः (समीचीः) याः सम्यगञ्चन्ति ताः (पुमांसम्) पुरुषार्थयुक्तं नरम् (जातम्) प्रसिद्धम् (अभि) आभिमुख्ये (सम्) सम्यक् (रभन्ते) प्रवर्त्तयन्ति ॥१३॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा कराऽङ्गुलयः परस्परं संहिता देहधारिणं मनुष्यं कर्मसु प्रवर्त्तयन्ति तथैव विद्वांसो वह्निं क्रियासु नियोजयन्ति ॥१३॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जशी हाताची बोटे परस्पर मिळून शरीरधारी माणसांना कार्यात प्रवृत्त करतात तसेच विद्वान पुरुष अग्नीला क्रियेत संयुक्त करतात, अर्थात् त्याद्वारे कार्य करतात. ॥ १३ ॥