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अग्ने॑ वृधा॒न आहु॑तिं पुरो॒ळाशं॑ जातवेदः। जु॒षस्व॑ ति॒रोअ॑ह्न्यम्॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

agne vṛdhāna āhutim puroḻāśaṁ jātavedaḥ | juṣasva tiroahnyam ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अग्ने॑। वृ॒धा॒नः। आऽहु॑तिम्। पु॒रो॒ळाश॑म्। जा॒त॒ऽवे॒दः॒। जु॒षस्व॑। ति॒रःऽअ॑ह्न्यम्॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:28» मन्त्र:6 | अष्टक:3» अध्याय:1» वर्ग:31» मन्त्र:6 | मण्डल:3» अनुवाक:2» मन्त्र:6


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर विद्वान् लोग कैसा वर्त्ताव करते, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (जातवेदः) संपूर्ण उत्पन्न हुए पदार्थों में व्यापक (अग्ने) अग्नि के सदृश तेजस्वी ! जैसे (वृधानः) बढ़ा हुआ अग्नि (आहुतिम्) चारों ओर अग्नि में छोड़े गये (तिरोअह्न्यम्) प्रातःकाल किये गये (पुरोडाशम्) उत्तम प्रकार संस्कारयुक्त अन्न आदि का सेवन करते हैं, वैसे उसकी आप (जुषस्व) सेवा करो ॥६॥
भावार्थभाषाः - जैसे बिजुली सब स्थानों में व्याप्त होकर सम्पूर्ण मूर्त्तिमान् पदार्थों का सेवन करती है वा प्रसिद्ध हुई बढ़ती है, वैसे ही विद्याओं में व्यापक विद्वान् जन धर्म की सेवा करते हुए वृद्धि को प्राप्त होते हैं ॥६॥ इस सूक्त में अग्नि और विद्वानों के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पूर्व सूक्तार्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह अट्ठाईसवाँ सूक्त और इकत्तीसवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्विद्वांसः कथं वर्त्तन्त इत्याह।

अन्वय:

हे जातवेदोऽग्ने ! यथा वृधानोऽग्निराहुतिं तिरोअह्न्यं पुरोडाशं सेवते तथैतं त्वं जुषस्व ॥६॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अग्ने) पावक इव वर्त्तमान (वृधानः) वर्धमानः (आहुतिम्) (पुरोडाशम्) सुसंस्कृतमन्नादिकम् (जातवेदः) जातेषु विद्यमान (जुषस्व) (तिरोअह्न्यम्) तिरःस्वहस्सु साधुम् ॥६॥
भावार्थभाषाः - यथा विद्युत्सर्वत्राऽभिव्याप्य सर्वान् मूर्तान् पदार्थान् सेवते प्रसिद्धा सती वर्धते तथैव विद्यासु व्यापका विद्वांसो धर्मं सेवमाना वर्धन्त इति ॥६॥ अत्राग्निविद्वद्गुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इत्येकोनत्रिंशत्तमं सूक्तमेकाधिकत्रिंशो वर्गश्च समाप्तः ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जशी विद्युत सर्व स्थानी व्याप्त होऊन संपूर्ण मूर्त पदार्थांचे सेवन करते, प्रसिद्ध होते व वर्धित होते, तसे विद्येत व्यापक असलेले विद्वान लोक धर्माची सेवा करीत वृद्धी पावतात. ॥ ६ ॥