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अग्ने॑ वी॒हि पु॑रो॒ळाश॒माहु॑तं ति॒रोअ॑ह्न्यम्। सह॑सः सू॒नुर॑स्यध्व॒रे हि॒तः॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

agne vīhi puroḻāśam āhutaṁ tiroahnyam | sahasaḥ sūnur asy adhvare hitaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अग्ने॑। वी॒हि। पु॒रो॒ळाश॑म्। आऽहु॑तम्। ति॒रःऽअ॑ह्न्यम्। सह॑सः। सू॒नुः। अ॒सि॒। अ॒ध्व॒रे। हि॒तः॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:28» मन्त्र:3 | अष्टक:3» अध्याय:1» वर्ग:31» मन्त्र:3 | मण्डल:3» अनुवाक:2» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अग्ने) अग्नि के सदृश तेजस्वी पुरुष ! आप अग्नि के तुल्य (तिरोअह्न्यम्) दिन के प्रथम भाग में उत्पन्न वा उत्तम (आहुतम्) चारों ओर से दिये गये (पुरोडाशम्) अनेक प्रकारों के संस्कारों से युक्त अन्न को (वीहि) प्राप्त होइये जिससे आप (सहसः) बल वा बलवान् वायु के (सूनुः) पुत्र के तुल्य (अध्वरे) दयारूप व्यवहार में सबके (हितः) हितकारी (असि) वर्त्तमान हैं, इस कारण से सत्कार करने योग्य हैं ॥३॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे अग्नि वायु से उत्पन्न होकर स्वरूपवान् द्रव्य को भस्म करके विभाग करता है, वैसे ही विद्या से पवित्रात्मा पुरुष अविद्या के व्यवहार को भस्म अर्थात् दूर करके सत्य और असत्य का विभाग करता है ॥३॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे अग्ने ! त्वं पावक इव तिरोअह्न्यमाहुतं पुरोडाशं वीहि यतस्त्वं सहसः सूनुरिवाऽध्वरे सर्वेषां हितोऽसि तस्मात्सत्कर्त्तव्योऽसि ॥३॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अग्ने) पावक इव वर्त्तमान (वीहि) प्राप्नुहि (पुरोडाशम्) अनेकविधसंस्कारैर्निष्पादितम् (आहुतम्) समन्तात्प्रदत्तम् (तिरोअह्न्यम्) तिरश्चीनेऽह्नि भवं साधु वा (सहसः) बलस्य बलवतो वायोर्वा (सूनुः) अपत्यमिव (असि) (अध्वरे) दयामये व्यवहारे (हितः) हितकारी ॥३॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथाऽग्निर्वायोर्जातः सन् मूर्त्तं द्रव्यं दग्ध्वा विभजति तथैव विद्यापवित्रोऽविद्याव्यवहारं दग्ध्वा सत्याऽसत्यं विभजति ॥३॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा अग्नी वायूपासून उत्पन्न होऊन साकार द्रव्याला भस्म करून विभक्त करतो तसेच विद्येने पवित्र झालेला आत्मा अविद्येचा व्यवहार भस्म करून सत्यासत्याला विभक्त करतो. ॥ ३ ॥