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पु॒रो॒ळा अ॑ग्ने पच॒तस्तुभ्यं॑ वा घा॒ परि॑ष्कृतः। तं जु॑षस्व यविष्ठ्य॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

puroḻā agne pacatas tubhyaṁ vā ghā pariṣkṛtaḥ | taṁ juṣasva yaviṣṭhya ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

पु॒रो॒ळाः। अ॒ग्ने॒। प॒च॒तः। तुभ्य॑म्। वा॒। घ॒। परि॑ऽकृतः। तम्। जु॒ष॒स्व॒। य॒वि॒ष्ठ्य॒॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:28» मन्त्र:2 | अष्टक:3» अध्याय:1» वर्ग:31» मन्त्र:2 | मण्डल:3» अनुवाक:2» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (यविष्ठ्य) अतिशय युवा पुरुषों में चतुर (अग्ने) अग्नि के सदृश तेजस्वी जन ! जो (तुभ्यम्) आपके लिये (पुरोळाः) वेद विधि से संस्कारयुक्त (पचतः) पाककर्त्ता हुआ (वा) अथवा (परिष्कृतः) सब प्रकार शुद्ध किया गया है (तम्) उसकी (घ) ही (जुषस्व) सेवा करो ॥२॥
भावार्थभाषाः - जैसे भोजन में प्रीतिकर्त्ता पुरुष अपने लिये उत्तम प्रकार संस्कारयुक्त अन्न आदि पदार्थों को सिद्ध और उनका भोजन करके आनन्दयुक्त होता है, वैसे ही उत्तम प्रकार संस्कारयुक्त हवन की सामग्री को प्राप्त होकर अग्नि सम्पूर्ण जनों को आनन्द देता है ॥२॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे यविष्ठ्याग्नेऽग्निरिव यस्तुभ्यं पुरोडाः पचतो वा परिष्कृतोऽस्ति तं घ जुषस्व ॥२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (पुरोळाः) यो विधिना संस्कृतः (अग्ने) पावकवद्वर्त्तमान (पचतः) पाकं कुर्वन्। अत्र पच धातोरौणादिकोऽतच्प्रत्ययः। (तुभ्यम्) (वा) पक्षान्तरे (घ) एव। अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (परिष्कृतः) सर्वतः शुद्धः संपादितः (तम्) (जुषस्व) (यविष्ठ्य) यविष्ठ्येष्वतिशयेन युवसु कुशलस्तत्सम्बुद्धौ ॥२॥
भावार्थभाषाः - यथा भोजनप्रियः स्वार्थानि सुसंस्कृतान्यन्नादीनि निष्पाद्य भुक्त्वाऽऽनन्दो जायते तथैव सुसंस्कृतानि हवींषि प्राप्याऽग्निः सर्वानानन्दयति ॥२॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जसा भोजनप्रिय पुरुष स्वतःसाठी संस्कारित अन्नपदार्थांचे भोजन करून आनंदी होतो, तसेच संस्कारित हवन सामग्री प्राप्त करून अग्नी संपूर्ण लोकांना आनंद देतो. ॥ २ ॥