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वृष॑णं त्वा व॒यं वृ॑ष॒न्वृष॑णः॒ समि॑धीमहि। अग्ने॒ दीद्य॑तं बृ॒हत्॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

vṛṣaṇaṁ tvā vayaṁ vṛṣan vṛṣaṇaḥ sam idhīmahi | agne dīdyatam bṛhat ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

वृष॑णम्। त्वा॒। व॒यम्। वृ॒ष॒न्। वृष॑णः। सम्। इ॒धी॒म॒हि॒। अग्ने॑। दीद्य॑तम्। बृ॒हत्॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:27» मन्त्र:15 | अष्टक:3» अध्याय:1» वर्ग:30» मन्त्र:5 | मण्डल:3» अनुवाक:2» मन्त्र:15


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर पढ़ने-पढ़ाने के विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (वृषन्) बलयुक्त (अग्ने) अग्नि के सदृश प्रकाशकर्त्ता जन ! जैसे आप (बृहत्) बड़े (दीद्यतम्) प्रकाशकर्त्ता विज्ञान को प्रकाशित करते हैं वैसे ही (वयम्) हम लोग (वृषणम्) सुखवृष्टिकारक (त्वा) आप और अन्य जनों को (वृषणः) बलयुक्त (सम्) उत्तम प्रकार (इधीमहि) प्रकाशित करें ॥१५॥
भावार्थभाषाः - हे पढ़ाने और पढ़नेवाले पुरुषो ! आप लोगों को चाहिये कि विरोध को त्याग और प्रीति को उत्पन्न करके परस्पर की वृद्धि करो, जिससे विद्या आदि उत्तम गुणों के प्रकाश से सम्पूर्ण मनुष्य बलयुक्त और न्यायकारी होवें ॥१५॥ इस सूक्त में अग्नि और विद्वानों के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्त में कहे अर्थ की पूर्व सूक्तार्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह सत्ताईसवाँ सूक्त और तीसवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनरध्ययनाऽध्यापनविषयमाह।

अन्वय:

हे वृषन्नग्ने यथा त्वं बृहद्दीद्यतं प्रकाशयसि तथैव वयं वृषणं त्वाऽन्यान् वृषणश्च समिधीमहि ॥१५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (वृषणम्) सुखवर्षयितारम् (त्वा) त्वाम् (वयम्) (वृषन्) बलिष्ठ (वृषणः) बलिष्ठान् (सम्) सम्यक् (इधीमहि) प्रकाशयेम (अग्ने) वह्निवत्प्रकाशक (दीद्यतम्) प्रकाशकं विज्ञानम् (बृहत्) महत् ॥१५॥
भावार्थभाषाः - हे अध्यापकाऽध्येतारो भवद्भिर्विरोधं विहाय प्रीतिं जनयित्वा परस्परेषामुन्नतिर्विधेया यतो विद्यादिसद्गुणप्रकाशेन सर्वे मनुष्या बलिष्ठा न्यायकारिणश्च स्युरिति ॥१५॥ अत्र वह्निविद्वद्गुणावर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥१५॥ इति सप्तविंशतितमं सूक्तं त्रिंशो वर्गश्च समाप्तः ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे अध्यापक व विद्यार्थ्यांनो! तुम्ही विरोध सोडून द्या व प्रेम उत्पन्न करून परस्पर वृद्धी करा. ज्यामुळे विद्या इत्यादी सद्गुणांच्या प्रकाशाने संपूर्ण माणसे बलवान व न्यायी व्हावीत. ॥ १५ ॥