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इळा॑मग्ने पुरु॒दंसं॑ स॒निं गोः श॑श्वत्त॒मं हव॑मानाय साध। स्यान्नः॑ सू॒नुस्तन॑यो वि॒जावाग्ने॒ सा ते॑ सुम॒तिर्भू॑त्व॒स्मे॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

iḻām agne purudaṁsaṁ saniṁ goḥ śaśvattamaṁ havamānāya sādha | syān naḥ sūnus tanayo vijāvāgne sā te sumatir bhūtv asme ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

इळा॑म्। अ॒ग्ने॒। पु॒रु॒ऽदंस॑म्। स॒निम्। गोः। श॒श्व॒त्ऽत॒मम्। हव॑मानाय। सा॒ध॒। स्यात्। नः॒। सू॒नुः। तन॑यः। वि॒जाऽवा॑। अ॒ग्ने॒। सा। ते॒। सु॒ऽम॒तिः। भू॒तु॒। अ॒स्मे इति॑॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:22» मन्त्र:5 | अष्टक:3» अध्याय:1» वर्ग:22» मन्त्र:5 | मण्डल:3» अनुवाक:2» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अग्ने) अग्नि के सदृश विद्या के प्रकाश करनेवाले विद्वान् ! आप (हवमानाय) प्रशंसा करनेवाले के लिये (इळाम्) पृथिवी (पुरुदंसम्) बहुत कर्मकर्त्ता (सनिम्) याचनाकारक (गोः) वाणी (शश्वत्तमम्) अनादि से वर्त्तमान चिह्न को हम लोगों के लिये (साध) सिद्ध करिये। हे (अग्ने) तेजस्वी पुरुष ! जिससे (नः) हम लोगों का (तनयः) विद्याविस्तारकर्त्ता (विजावा) सत्य और असत्य का विभागकारक (सूनुः) पुत्र (स्यात्) हो तथा (सा) वह (ते) आपकी (सुमतिः) उत्तम बुद्धि (अस्मे) हम लोगों के लिये (भूतु) होवे ॥५॥
भावार्थभाषाः - विद्वान् पुरुष विद्या ग्रहण करने की इच्छा करनेवाले पुरुष के लिये विद्या को सिद्ध करे तथा सबसे गुणों का ग्रहण करे ॥५॥ इस सूक्त में अग्नि के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पूर्व सूक्तार्थ के साथ संगति जाननी चाहिये ॥ यह बाइसवाँ सूक्त और बाइसवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे अग्ने ! त्वं हवमानायेळां पुरुदंसं सनिं गोः शश्वत्तमं नोऽस्मभ्यं साध। हे अग्ने ! येन नस्तनयो विजावा सूनुः स्यात्सा ते सुमतिरस्मे भूतु ॥५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (इळाम्) पृथिवीम् (अग्ने) अग्निरिव विद्याप्रकाशक (पुरुदंसम्) बहुकर्माणम् (सनिम्) याचमानम् (गोः) वाचः (शश्वत्तमम्) अनादिनं लक्ष्यम् (हवमानाय) प्रशंसमानाय (साध) (स्यात्) भवेत् (नः) अस्माकम् (सूनुः) अपत्यम् (तनयः) विद्याविस्तारकः (विजावा) सत्याऽसत्ययोर्विभाजकः (अग्ने) (सा) (ते) तव (सुमतिः) सुष्ठुप्रज्ञा (भूतु) भवतु (अस्मे) अस्मभ्यम् ॥५॥
भावार्थभाषाः - विद्वान् विद्यामादित्सवे विद्यां साध्नुयात्सर्वतो गुणान् गृह्णीयादिति ॥५॥ अस्मिन्सूक्तेऽग्निगुणवर्णनादेतदेर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति द्वाविंशं सूक्तं द्वाविंशो वर्गश्च समाप्तः॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - विद्वान पुरुषांनी जिज्ञासू लोकांना विद्या द्यावी व सर्वांकडून गुणांचे ग्रहण करावे. ॥ ५ ॥