इ॒मं नो॑ य॒ज्ञम॒मृते॑षु धेही॒मा ह॒व्या जा॑तवेदो जुषस्व। स्तो॒काना॑मग्ने॒ मेद॑सो घृ॒तस्य॒ होतः॒ प्राशा॑न प्रथ॒मो नि॒षद्य॑॥
imaṁ no yajñam amṛteṣu dhehīmā havyā jātavedo juṣasva | stokānām agne medaso ghṛtasya hotaḥ prāśāna prathamo niṣadya ||
इ॒मम्। नः॒। य॒ज्ञम्। अ॒मृते॑षु। धे॒हि॒। इ॒मा। ह॒व्या। जा॒त॒ऽवे॒दः॒। जु॒ष॒स्व॒। स्तो॒काना॑म्। अ॒ग्ने॒। मेद॑सः। घृ॒तस्य॑। होत॒रिति॑। प्र। अ॒शा॒न॒। प्र॒थ॒मः। नि॒ऽसद्य॑॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब पाँच ऋचावाले इक्कीसवें सूक्त का प्रारम्भ है। इसके प्रथम मन्त्र में मनुष्यों को क्या करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं।
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अथ मनुष्यैः किं कर्त्तव्यमित्याह।
हे जातवेदो मेदसो घृतस्य स्तोकानां होतरग्ने प्रथमस्त्वं निषद्य सुखं प्राशान न इमं यज्ञं जुषस्वेमा हव्या अमृतेषु धेहि ॥१॥
माता सविता जोशी
(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)या सूक्तात अग्नी व माणसांच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणली पाहिजे.