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यत्त्वा॒ होता॑रम॒नज॑न्मि॒येधे॑ निषा॒दय॑न्तो य॒जथा॑य दे॒वाः। स त्वं नो॑ अग्नेऽवि॒तेह बो॒ध्यधि॒ श्रवां॑सि धेहि नस्त॒नूषु॑॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yat tvā hotāram anajan miyedhe niṣādayanto yajathāya devāḥ | sa tvaṁ no agne viteha bodhy adhi śravāṁsi dhehi nas tanūṣu ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यत्। त्वा॒। होता॑रम्। अ॒नज॑न्। मि॒येधे॑। नि॒ऽषा॒दय॑न्तः। य॒जथा॑य। दे॒वाः। सः। त्वम्। नः॒। अ॒ग्ने॒। अ॒वि॒ता। इ॒ह। बो॒धि॒। अधि॑। श्रवां॑सि। धे॒हि॒। नः॒। त॒नूषु॑॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:19» मन्त्र:5 | अष्टक:3» अध्याय:1» वर्ग:19» मन्त्र:5 | मण्डल:3» अनुवाक:2» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अग्ने) विद्वान् पुरुष ! (निषादयन्तः) अत्यन्त अधिकार में स्थित कराने वा जनानेवाले (देवाः) विद्वान् पुरुष (मियेधे) प्राप्त होने योग्य यज्ञ में (यजथाय) विद्या में बोध कराने के लिये (यत्) जिन (होतारम्) विद्यादाता (त्वा) आपकी (अनजन्) कामना करें (सः) वह (त्वम्) आप (इह) इस संसार में (नः) हम लोगों की (अविता) रक्षा आदि के कर्ता हुए हम लोगों को (बोधि) बोध कराइये और (नः) हम लोगों के (तनूषु) शरीरों में (श्रवांसि) प्रिय अन्नों के सदृश सम्पदाओं को (अधि) उत्तम प्रकार (धेहि) स्थित करो ॥५॥
भावार्थभाषाः - हे विद्वान् मनुष्यो ! जिन अधिकारों में आप लोग नियुक्त किये जायें, उन अधिकारों में उत्तम प्रकार वर्त्तमान होके सर्व जनों को श्रेष्ठ बनाइये और जिस शिक्षा से विद्या सभ्यता आरोग्यता और अवस्था बढ़े, ऐसा उपाय निरन्तर करो ॥५॥ इस सूक्त में अग्नि और विद्वानों के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पूर्व सूक्तार्थ के साथ सङ्गति है, यह जानना चाहिये ॥ यह उन्नीसवाँ सूक्त और उन्नीसवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे अग्ने निषादयन्तो देवा मियेधे यजथाय यद्धोतारं त्वानजन् स त्वमिह नोऽविता सन्नस्मान्बोधि नस्तनूषु श्रवांस्यधि धेहि ॥५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (यत्) यः (त्वा) त्वाम् (होतारम्) विद्यादातारम् (अनजन्) कामयेरन् (मियेधे) प्रापणीये यज्ञे (निषादयन्तः) नितरां स्थापयन्तो वा विज्ञापयन्तः (यजथाय) विद्यासङ्गमनाय (देवाः) विद्वांसः (सः) (त्वम्) (नः) अस्माकमस्मान्वा (अग्ने) विद्वन् (अविता) रक्षणादिकर्त्ता (इह) अस्मिन्ससारे (बोधि) बोधय (अधि) उत्कृष्टे (श्रवांसि) प्रियाण्यन्नानीव श्रवणानि (धेहि) स्थापय (नः) अस्माकम् (तनूषु) शरीरेषु ॥५॥
भावार्थभाषाः - हे विद्वांसो मनुष्या येष्वधिकारेषु युष्मान्नियोजयेयुस्तेषु यथावद्वर्तित्वा सर्वान्सभ्यान्भवन्तो निष्पादयेयुर्यया शिक्षया विद्यासभ्यताऽऽरोग्यायूंषि वर्धेरंस्तथैव सततमनुतिष्ठतेति ॥५॥ अत्राग्निविद्वद्गुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेद्यम् ॥ इत्येकोनविंशं सूक्तमेकोनविंशो वर्गश्च समाप्तः॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे विद्वान माणसांनो! ज्या पदावर तुम्हाला नेमलेले आहे त्या अधिकारानुसार सर्व लोकांना सभ्य बनवा व ज्या शिक्षणाने विद्या, सभ्यता, आरोग्य, दीर्घायू वाढेल असा उपाय निरंतर करा. ॥ ५ ॥