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अच्छि॑द्रा॒ शर्म॑ जरितः पु॒रूणि॑ दे॒वाँ अच्छा॒ दीद्या॑नः सुमे॒धाः। रथो॒ न सस्नि॑र॒भि व॑क्षि॒ वाज॒मग्ने॒ त्वं रोद॑सी नः सु॒मेके॑॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

acchidrā śarma jaritaḥ purūṇi devām̐ acchā dīdyānaḥ sumedhāḥ | ratho na sasnir abhi vakṣi vājam agne tvaṁ rodasī naḥ sumeke ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अच्छि॑द्रा। शर्म॑। ज॒रि॒त॒रिति॑। पु॒रूणि॑। दे॒वान्। अच्छ॑। दीद्या॑नः। सु॒ऽमे॒धाः। रथः॑। न। सस्निः॑। अ॒भि। व॒क्षि॒। वाज॑म्। अ॒ग्ने॒। त्वम्। रोद॑सी॒ इति॑। नः॒। सु॒मेके॒ इति॑ सु॒ऽमेके॑॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:15» मन्त्र:5 | अष्टक:3» अध्याय:1» वर्ग:15» मन्त्र:5 | मण्डल:3» अनुवाक:2» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अग्ने) अग्नि के सदृश प्रतापी ! (त्वम्) आप जैसे अग्नि (सुमेके) अच्छे प्रकार फैलाये गये (रोदसी) अन्तरिक्ष पृथिवी को प्रकाशित करता है, उसी प्रकार (नः) हम लोगों के (दीद्यानः) प्रकाशयुक्त वा प्रकाशक (सुमेधाः) श्रेष्ठ बुद्धिमान् और (सस्निः) सुडौल (रथः) उत्तम रथ के (न) सदृश हम लोगों के लिये (अभि) सन्मुख (वाजम्) विज्ञान को (वक्षि) कहिये हे (जरितः) सत्य गुणों की स्तुतिकर्ता विद्वान् पुरुष आप (अच्छिद्रा) अति पुष्ट (पुरूणि) बहुत (शर्म) गृह और (देवान्) विद्वान् वा उत्तम गुणों से प्रसन्नतापूर्वक (अच्छ) उत्तम प्रकार संयुक्त कीजिये ॥५॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे सुडौल बने हुए और दृढ रथ से अभिवाञ्छित स्थानों को शीघ्र पहुँचते हैं, वैसे ही जो पुरुष आलस्य त्याग कर पुरुषार्थी हैं, वे उत्तम स्थानों की कामना करते हुए विद्वानों के सङ्ग द्वारा श्रेष्ठगुणों से संयुक्त होकर अन्य जनों के लिये भी उपदेश देते हैं, वे पुरुष उत्तम प्रकार सुख भोगते हैं ॥५॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे अग्ने ! त्वं यथाऽग्निः सुमेके रोदसी प्रकाशयति तथैव नो दीद्यानः सुमेधाः सस्नी रथो न नोऽस्मभ्यं वाजमभि वक्षि। हे जरितर्विद्वँस्त्वमच्छिद्रा पुरूणि शर्म देवाँश्च कामयमानः सन्नच्छाभि वक्षि ॥५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अच्छिद्रा) अच्छिन्नानि (शर्म) शर्माणि गृहाणि (जरितः) सत्यगुणस्तावक (पुरूणि) बहूनि (देवान्) विदुषो दिव्यगुणान् वा (अच्छ) सुष्ठु। अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (दीद्यानः) प्रकाशमानः प्रकाशयन् वा (सुमेधाः) उत्तमप्रज्ञः सन् (रथः) उत्तमयानम् (न) इव (सस्निः) शुद्धः (अभि) आभिमुख्ये (वक्षि) वदसि (वाजम्) विज्ञानम् (अग्ने) पावकवद्वर्त्तमान (त्वम्) (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ (नः) अस्माकम् (सुमेके) सुष्ठु प्रक्षिप्ते ॥५॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। यथा शुद्धेन दृढेन रथेनाऽभीष्टं स्थानं सद्यो गच्छन्ति तथैव येऽनलसाः पुरुषार्थिनः शोभनानि स्थानानि कामयमानाः विद्वत्सङ्गेन दिव्यान् गुणान् प्राप्याऽन्यान् प्रत्युपदिशन्ति ते सम्यक् सिद्धसुखा जायन्ते ॥५॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसे मजबूत रथाद्वारे इच्छित स्थानी शीघ्र पोचता येते, तसेच जे पुरुष आळशीपणा सोडून पुरुषार्थी बनतात ते उत्तम स्थानांची कामना करीत विद्वानांच्या संगतीने श्रेष्ठ गुणांनी संयुक्त होऊन इतरांसाठीही उपदेश देतात. ते उत्तम प्रकारचे सुख भोगतात. ॥ ५ ॥