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प्र वो॑ दे॒वाया॒ग्नये॒ बर्हि॑ष्ठमर्चास्मै। गम॑द्दे॒वेभि॒रा स नो॒ यजि॑ष्ठो ब॒र्हिरा स॑दत्॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

pra vo devāyāgnaye barhiṣṭham arcāsmai | gamad devebhir ā sa no yajiṣṭho barhir ā sadat ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

प्र। वः॒। दे॒वाय॑। अ॒ग्नये॑। बर्हि॑ष्ठम्। अ॒र्च॒। अ॒स्मै॒। गम॑त्। दे॒वेभिः॑। आ। सः। नः॒। यजि॑ष्ठः। ब॒र्हिः। आ। स॒द॒त्॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:13» मन्त्र:1 | अष्टक:3» अध्याय:1» वर्ग:13» मन्त्र:1 | मण्डल:3» अनुवाक:2» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब सात ऋचावाले तेरहवें सूक्त का आरम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में विद्वान् लोग क्या करें, इस विषय को कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जो पुरुष (देवेभिः) उत्तम गुणों के साथ (अस्मै) इस (देवाय) श्रेष्ठगुणयुक्त (अग्नये) अग्नि के सदृश तेजधारी के लिये (वः) आप लोगों को (आ) सब प्रकार (गमत्) प्राप्त होवे उस (बर्हिष्ठम्) यज्ञ में बैठनेवाले का (प्र) (अर्च) विशेष सत्कार करो (सः) वह (यजिष्ठः) अतिशय यज्ञ करनेवाला (नः) हम लोगों को (बर्हिः) अन्तरिक्ष में (आ) (सदत्) प्राप्त होवे ॥१॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जो लोग आप लोगों का सत्कार करते हैं, उनका आप लोग भी सत्कार करें। जैसे विद्वज्जन विद्वान् पुरुषों से विद्यायुक्त शुभगुणों को ग्रहण करते हैं, उन विद्वज्जनों की आप लोग भी सेवा करें और हम लोगों को उत्तम गुण प्राप्त हों, ऐसी इच्छा करो ॥१॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ विद्वांसः किं कुर्युरित्याह।

अन्वय:

हे मनुष्या यो देवेभिः सहास्मै देवायाग्नये वो युष्मानागमत्तं बर्हिष्ठं प्रार्च स यजिष्ठो नो बर्हिरासदत् ॥१॥

पदार्थान्वयभाषाः - (प्र) (वः) युष्मान् (देवाय) दिव्यगुणाय (अग्नये) अग्निवद्वर्त्तमानाय (बर्हिष्ठम्) बर्हिषि यज्ञे तिष्ठतीति (अर्च) सत्कुरु (अस्मै) (गमत्) गच्छेत् प्राप्नुयात्। अत्राडभावः। (देवेभिः) दिव्यगुणैः सह (आ) (सः) (नः) अस्मान् (यजिष्ठः) अतिशयेन यष्टा (बर्हिः) अन्तरिक्षे (आ) (सदत्) प्राप्नुयात् ॥१॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या ये युष्मान् सत्कुर्वन्ति तान् यूयमपि सत्कुरुत यथा विद्वांसो विद्वद्भ्यो विद्यया युक्तान् शुभान् गुणान् गृह्णन्ति तान् यूयमर्चताऽस्मान् दिव्या गुणाः प्राप्नुवन्त्वितीच्छत ॥१॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात विद्वान व अग्नी यांच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची मागच्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती जाणावी.

भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो! जे लोक तुमचा सत्कार करतात त्यांचा तुम्हीही सत्कार करा. जसे विद्वान लोक विद्वान पुरुषांकडून विद्यायुक्त शुभ गुणांचा स्वीकार करतात त्या विद्वान लोकांची तुम्हीही सेवा करा व आम्हाला उत्तम गुण प्राप्त व्हावेत अशी इच्छा धरा. ॥ १ ॥