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इन्द्र॑म॒ग्निं क॑वि॒च्छदा॑ य॒ज्ञस्य॑ जू॒त्या वृ॑णे। ता सोम॑स्ये॒ह तृ॑म्पताम्॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

indram agniṁ kavicchadā yajñasya jūtyā vṛṇe | tā somasyeha tṛmpatām ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

इन्द्र॑म्। अ॒ग्निम्। क॒वि॒ऽछदा॑। य॒ज्ञस्य॑। जू॒त्या। वृ॒णे॒। ता। सोम॑स्य। इ॒ह। तृ॒म्प॒ता॒म्॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:12» मन्त्र:3 | अष्टक:3» अध्याय:1» वर्ग:11» मन्त्र:3 | मण्डल:3» अनुवाक:1» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्य क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - मैं जिन (जूत्वा) वेग के सहित वर्त्तमान (कविच्छदा) विद्वानों का सत्संग करनेवाले (इन्द्रम्) दुष्टों के दोषों के नाशकर्ता और (अग्निम्) अग्नि के सदृश दुष्टों के भस्मकारक जनों को (वृणे) स्वीकार करता हूँ (ता) वे (इह) इस संसार में (सोमस्य) ऐश्वर्य्य और (यज्ञस्य) धर्मसम्बन्धी व्यवहार के मध्य में (तृम्पताम्) सुख भोगें और सबको सुखी करें ॥३॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को चाहिये कि मूर्ख लोगों का सङ्ग त्याग के और विद्वानों का सङ्ग करके उत्तम आचरण करने से इस संसार में ऐश्वर्य्य का संग्रह करके सदा ही आनन्दयुक्त रहैं ॥३॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्मनुष्याः किं कुर्युरित्याह।

अन्वय:

अहं यौ जूत्या सह वर्त्तमानौ कविच्छदा इन्द्रमग्निं च वृणे ता इह सोमस्य यज्ञस्य मध्ये तृम्पताम् ॥३॥

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्रम्) विद्युदिव दुष्टदोषप्रणाशकम् (अग्निम्) पावकइव दुष्टानां दाहकम् (कविच्छदा) यौ कवीन् विदुषश्छदयत ऊर्जयतस्तौ (यज्ञस्य) धर्म्यस्य व्यवहारस्य (जूत्या) वेगेन (वृणे) स्वीकरोमि (ता) तौ (सोमस्य) ऐश्वर्यस्य (इह) अस्मिन् संसारे (तृम्पताम्) सुखयतम् ॥३॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यैर्मूर्खसङ्गं विहाय विद्वत्सङ्गं विधायोत्तमाचरणेनास्मिन् जगत्यैश्वर्य्यमुन्नीय सदैवानन्दितव्यम् ॥३॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - माणसांनी मूर्ख लोकांच्या संगतीचा त्याग व विद्वानांचा संग करून उत्तम आचरण करून या जगात ऐश्वर्याचा संग्रह करून सदैव आनंदयुक्त राहावे. ॥ ३ ॥