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त्वाम॑ग्ने मनी॒षिणः॑ स॒म्राजं॑ चर्षणी॒नाम्। दे॒वं मर्ता॑स इन्धते॒ सम॑ध्व॒रे॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tvām agne manīṣiṇaḥ samrājaṁ carṣaṇīnām | devam martāsa indhate sam adhvare ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

त्वाम्। अ॒ग्ने॒। म॒नी॒षिणः॑। स॒म्ऽराज॑म्। च॒र्ष॒णी॒नाम्। दे॒वम्। मर्ता॑सः। इ॒न्ध॒ते॒। सम्। अ॒ध्व॒रे॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:10» मन्त्र:1 | अष्टक:3» अध्याय:1» वर्ग:7» मन्त्र:1 | मण्डल:3» अनुवाक:1» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब नौ ऋचावाले दशमें सूक्त का आरम्भ है। इसके प्रथम मन्त्र में ईश्वर क्या करता है, इस विषय को कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अग्ने) स्वयंप्रकाशरूप जगदीश्वर ! (मनीषिणः) मननशील (मर्त्तासः) मनुष्य जिन (चर्षणीनाम्) मनुष्यादि प्रजाओं के (सम्राजम्) सम्यक् न्यायाधीश राजा (देवम्) सब सुख देनेवाले (त्वाम्) आपको (अध्वरे) रक्षणीय धर्मयुक्त व्यवहार में (सम्, इन्धते) सम्यक् प्रकाशित करते हैं, उन्हीं आपकी हम भी उपासना करें ॥१॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे अग्नि सूर्य्यादि रूप से सब जगत् को प्रकाशित और उपकृत कर आनन्दित करता है, वैसे ही परमात्मा अन्तर्यामी रूप से जिज्ञासु योगी लोगों के आत्माओं को विशेष और सामान्य से सबके आत्माओं को प्रकाशित कर और जगत् के असंख्य पदार्थों से उपकृत कर इस लोक-परलोक के सुख देने से सदैव सुखी करता है ॥१॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथेश्वरः किं करोतीत्याह।

अन्वय:

हे अग्ने जगदीश्वर ! मनीषिणो मर्त्तासो यं चर्षणीनां सम्राजं देवं त्वामध्वरे समिन्धते तमेव वयमप्युपासीमहि ॥१॥

पदार्थान्वयभाषाः - (त्वाम्) अग्निरिव वर्त्तमानं परमात्मानम् (अग्ने) स्वप्रकाशस्वरूप (मनीषिणः) मनस ईषिणः। अत्र शकन्ध्वादिना पररूपम्। (सम्राजम्) सम्राडिव वर्त्तमानम् (चर्षणीनाम्) मनुष्यादिप्रजानाम् (देवम्) सर्वसुखदातारम् (मर्त्तासः) मनुष्याः (इन्धते) प्रकाशयन्ति (सम्) (अध्वरे) अहिंसनीये धर्म्ये व्यवहारे ॥१॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथाऽग्निः सूर्य्यादिरूपेण सर्वं जगत्प्रकाश्योपकृत्याऽऽनन्दयति तथैव परमात्माऽन्तर्यामिरूपेण जिज्ञासूनां योगिनामात्मनो विशेषतः सामान्यतः सर्वेषां च प्रकाश्य जगत्स्थैरसङ्ख्यैः पदार्थैरुपकृत्याऽभ्युदयनिःश्रेयससुखदानेन सदैव सुखयति ॥१॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात अग्नी, परमात्मा व विद्वानांच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची मागच्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती जाणावी.

भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा अग्नी सूर्यरूपाने सर्व जगाला प्रकाशित व उपकृत करून आनंदित करतो तसेच परमात्मा अंतर्यामी रूपाने जिज्ञासू योगी लोकांच्या आत्म्यांना विशेष व सामान्यपणे सर्व आत्म्यांना प्रकाशित करून जगातील असंख्य पदार्थांनी उपकृत करून हा लोक व परलोक यांचे सुख देऊन सदैव सुखी करतो. ॥ १ ॥