त्वाम॑ग्ने मनी॒षिणः॑ स॒म्राजं॑ चर्षणी॒नाम्। दे॒वं मर्ता॑स इन्धते॒ सम॑ध्व॒रे॥
tvām agne manīṣiṇaḥ samrājaṁ carṣaṇīnām | devam martāsa indhate sam adhvare ||
त्वाम्। अ॒ग्ने॒। म॒नी॒षिणः॑। स॒म्ऽराज॑म्। च॒र्ष॒णी॒नाम्। दे॒वम्। मर्ता॑सः। इ॒न्ध॒ते॒। सम्। अ॒ध्व॒रे॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब नौ ऋचावाले दशमें सूक्त का आरम्भ है। इसके प्रथम मन्त्र में ईश्वर क्या करता है, इस विषय को कहते हैं।
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अथेश्वरः किं करोतीत्याह।
हे अग्ने जगदीश्वर ! मनीषिणो मर्त्तासो यं चर्षणीनां सम्राजं देवं त्वामध्वरे समिन्धते तमेव वयमप्युपासीमहि ॥१॥
माता सविता जोशी
(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)या सूक्तात अग्नी, परमात्मा व विद्वानांच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची मागच्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती जाणावी.