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पि॒तुश्चि॒दूध॑र्ज॒नुषा॑ विवेद॒ व्य॑स्य॒ धारा॑ असृज॒द्वि धेनाः॑। गुहा॒ चर॑न्तं॒ सखि॑भिः शि॒वेभि॑र्दि॒वो य॒ह्वीभि॒र्न गुहा॑ बभूव॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

pituś cid ūdhar januṣā viveda vy asya dhārā asṛjad vi dhenāḥ | guhā carantaṁ sakhibhiḥ śivebhir divo yahvībhir na guhā babhūva ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

पि॒तुः। चि॒त्। ऊधः॑। ज॒नुषा॑। वि॒वे॒द॒। वि। अ॒स्य॒। धाराः॑। अ॒सृ॒ज॒त्। वि। धेनाः॑। गुहा॑। चर॑न्तम्। सखि॑ऽभिः। शि॒वेभिः॑। दि॒वः। य॒ह्वीभिः॑। न। गुहा॑। ब॒भू॒व॒॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:1» मन्त्र:9 | अष्टक:2» अध्याय:8» वर्ग:14» मन्त्र:4 | मण्डल:3» अनुवाक:1» मन्त्र:9


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - जैसे (ऊधः) रात्री (विबभूव) विशेषता से होती है वा जैसे (अस्य) इस जल की (धाराः) धाराओं के (चित्) समान प्रवाह (गुहा) बुद्धि में होते हैं वैसे जो (पितुः) पिता की उत्तेजना से गर्भ में स्थिर होकर (जनुषा) जन्म से प्रकट होकर (शिवेभिः) मङ्गलकारी (सखिभिः) मित्र वर्गों के साथ (दिवः) विद्या की दीप्ति जो (यह्वीः) बड़ी-बड़ी उनके (न) समान (गुहा) कन्दरा में (चरन्तम्) विचरते हुए को (विवेद) जानता है (धेनाः) प्रीयप्राण सन्तानों के समान (व्यसृजत्) विशेषता से उत्पन्न को वह सुख प्राप्त होता है ॥९॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे अन्धकार में स्थित वस्तु नहीं दीख पड़ती, जैसे दीप से प्राप्त होती, वैसे पिता के शरीर में वर्त्तमान जीव गर्भ में स्थित हुआ नहीं दीखता और जब इसका जन्म होता है तब दीखता है। इस प्रकार जो मङ्गलाचरणों से मित्रों के साथ विद्याओं का ग्रहण करता है, वह आत्मा को जान बड़ा होता है ॥९॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

यथोधो विबभूव यथास्य धाराश्चिद्गुहा भवन्ति तथा यः पितुस्सकाशात् गर्भे स्थित्वा जनुषा प्रकटो भूत्वा शिवेभिस्सखिभिस्सह दिवो यह्वीर्न गुहा चरन्तं विवेद धेना व्यसृजत् स सुखमाप्नोति ॥९॥

पदार्थान्वयभाषाः - (पितुः) जनकस्य सकाशात् (चित्) इव (ऊधः) रात्री (जनुषा) जन्मना (विवेद) वेत्ति (वि) (अस्य) जलस्य (धाराः) प्रवाहाश्च (असृजत्) सृजेत् (वि) विशेषण (धेनाः) प्रीयमाणान्यपत्यानि इव वाचः (गुहा) गुहायाम् बुद्धौ (चरन्तम्) प्राप्नुवन्तम् (सखिभिः) मित्रैः (शिवेभिः) मङ्गलकारिभिः (दिवः) विद्यादीप्तीः (यह्वीभिः) महतीभिः (न) इव (गुहा) कन्दरायाम् (बभूव) भवति ॥९॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। यथान्धकारे स्थितं वस्तु न दृश्यते दीपेन लभ्यते तथा पितुः शरीरे वर्त्तमानो जीवो गर्भे स्थितस्सन् न दृश्यते यदास्य जन्म भवति तदा दृश्यो जायत एवं यो मङ्गलाचारैः मित्रैस्सह विद्या गृह्णाति स आत्मानं विदित्वा महान् भवति ॥९॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जशी अंधारात वस्तू दिसत नाही, ती दिव्यामुळे दिसते, तसे पित्याच्या शरीरात असलेला जीव गर्भात स्थिर झाल्यावरही दिसत नाही. जेव्हा जन्म होतो तेव्हा दिसतो. याप्रकारे जो कल्याण करणाऱ्या आचरणाने मित्रांबरोबर विद्या ग्रहण करतो तो आत्म्याला जाणून मोठा होतो. ॥ ९ ॥