सोम॑स्य मा त॒वसं॒ वक्ष्य॑ग्ने॒ वह्निं॑ चकर्थ वि॒दथे॒ यज॑ध्यै। दे॒वाँ अच्छा॒ दीद्य॑द्यु॒ञ्जे अद्रिं॑ शमा॒ये अ॑ग्ने त॒न्वं॑ जुषस्व॥
somasya mā tavasaṁ vakṣy agne vahniṁ cakartha vidathe yajadhyai | devām̐ acchā dīdyad yuñje adriṁ śamāye agne tanvaṁ juṣasva ||
सोम॑स्य। मा॒। त॒वसम्। वक्षि॑। अ॒ग्ने॒। वह्नि॑म्। च॒क॒र्थ॒। वि॒दथे॑। यज॑ध्यै। दे॒वान्। अच्छ॑। दीद्य॑त्। यु॒ञ्जे। अद्रि॑म्। श॒म्ऽआ॒ये। अ॒ग्ने॒। त॒न्व॑म्। जु॒ष॒स्व॒॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब तीसरे मण्डल का प्रारम्भ है। उसके प्रथम सूक्त के आरम्भ के प्रथम मन्त्र में विद्वानों की प्रशंसा को कहते हैं।
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अथ विद्वद्गुणानाह।
हे अग्ने ! यस्त्वं सोमस्य तवसं मा वह्निं वक्षि विदथे देवान् यजध्यै अच्छ चकर्थ तेन सहाहं दीद्यत्सन् विदथे देवान् यजध्यै युञ्जे यथाऽग्निरद्रिं वहति तथाऽहं विदुषां समीपे शमाये। हे अग्ने ! शिष्यो यथा विद्वच्छरीरं सेवते तथा च तन्वं जुषस्व॥१॥
माता सविता जोशी
(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)या सूक्तात विद्वान, स्त्री-पुरुष व विद्या, जन्माची प्रशंसा असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची मागील सूक्तार्थाबरोबर संगती आहे, हे जाणावे.