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यदी॑ मा॒तुरुप॒ स्वसा॑ घृ॒तं भर॒न्त्यस्थि॑त। तासा॑मध्व॒र्युराग॑तौ॒ यवो॑ वृ॒ष्टीव॑ मोदते॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yadī mātur upa svasā ghṛtam bharanty asthita | tāsām adhvaryur āgatau yavo vṛṣṭīva modate ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यदि॑। मा॒तुः। उप॑। स्वसा॑। घृ॒तम्। भर॑न्ती। अस्थि॑त। तासा॑म्। अ॒ध्व॒र्युः। आऽग॑तौ। यवः॑। वृ॒ष्टीऽइ॑व। मो॒द॒ते॒॥

ऋग्वेद » मण्डल:2» सूक्त:5» मन्त्र:6 | अष्टक:2» अध्याय:5» वर्ग:26» मन्त्र:6 | मण्डल:2» अनुवाक:1» मन्त्र:6


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - (यदि) जो (घृतम्) जल को (उप, भरन्ती) समीप होकर भरनेवाली (मातुः) माता की (स्वसा) बहिन वा (तासाम्) उन पूर्वोक्त कन्याओं की अध्यापिका (अस्थित) स्थित होती है तो त्विक् और (अध्वर्युः) यज्ञ का करनेवाला यज्ञ को (आगतौ) प्राप्त होकर आनन्दित होते हैं वैसे वा (यवः) (वृष्टीव) वृष्टि से ओषधि वैसे (मोदते) हर्ष को प्राप्त होती है ॥६॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। यदि कन्याजन अध्यापिका विदुषी और माता को प्राप्त होकर विदुषी होती हैं, तो जल से ओषधियों के समान सब ओर से वृद्धि को प्राप्त होती हैं ॥६॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

यदि घृतमुपभरन्ती मातुः स्वसा तासामध्यापिकावास्थित तर्हि त्विगध्वर्युर्यज्ञमागतावानन्दत इव यवो वृष्टीव वा मोदते ॥६॥

पदार्थान्वयभाषाः - (यदि) अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (मातुः) जनन्याः (उप) (स्वसा) भगिनी (घृतम्) उदकम् (भरन्ती) धरन्ती (अस्थित) तिष्ठति (तासाम्) कन्यानाम् (अध्वर्युः) यज्ञकर्त्ता (आगतौ) समन्तात्प्राप्तौ (यवः) (वृष्टीव) यथा वृष्ट्या। अत्र टा स्थाने पूर्वसवर्णादेशः। (मोदते) हर्षति ॥६॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। यदि कन्या अध्यापिकां विदुषीं मातरं च प्राप्य विदुष्यो भवन्ति तर्हि जलेनौषधय इव सर्वतो वर्द्धन्ते ॥६॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. जशा कन्या अध्यापिका, विदुषी व माता यांच्या संगतीने विदुषी बनतात, जलामुळे जशी औषधी वाढते तशा त्या वर्धित होतात. ॥ ६ ॥