उ॒द्गा॒तेव॑ शकुने॒ साम॑ गायसि ब्रह्मपु॒त्रइ॑व॒ सव॑नेषु शंससि। वृषे॑व वा॒जी शिशु॑मतीर॒पीत्या॑ स॒र्वतो॑ नः शकुने भ॒द्रमा व॑द वि॒श्वतो॑ नः शकुने॒ पुण्य॒मा व॑द॥
udgāteva śakune sāma gāyasi brahmaputra iva savaneṣu śaṁsasi | vṛṣeva vājī śiśumatīr apītyā sarvato naḥ śakune bhadram ā vada viśvato naḥ śakune puṇyam ā vada ||
उ॒द्गा॒ताऽइ॑व। श॒कु॒ने॒। साम॑। गा॒य॒सि॒। ब्र॒ह्म॒पु॒त्रःऽइ॑व। सव॑नेषु। शं॒स॒सि॒। वृषा॑ऽइव। वा॒जी। शिशु॑ऽमतीः। अ॒पि॒ऽइत्य॑। स॒र्वतः॑। नः॒। श॒कु॒ने॒। भ॒द्रम्। आ। व॒द॒। वि॒श्वतः॑। नः॒। श॒कु॒ने॒। पुण्य॑म्। आ। व॒द॒॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर उसी विषय को कहते हैं।
स्वामी दयानन्द सरस्वती
पुनस्तमेव विषयमाह।
हे शकुने यस्त्वमुद्गातेव साम गायसि ब्रह्मपुत्र इव सवनेषु शंससि स त्वं वृषेव वाजी शिशुमतीरपीत्य नः सर्वतो भद्रमावद हे शकुने त्वं सर्वतो विद्यामावद। हे शकुने त्वं नो विश्वतः पुण्यमावद ॥२॥