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उ॒द्गा॒तेव॑ शकुने॒ साम॑ गायसि ब्रह्मपु॒त्रइ॑व॒ सव॑नेषु शंससि। वृषे॑व वा॒जी शिशु॑मतीर॒पीत्या॑ स॒र्वतो॑ नः शकुने भ॒द्रमा व॑द वि॒श्वतो॑ नः शकुने॒ पुण्य॒मा व॑द॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

udgāteva śakune sāma gāyasi brahmaputra iva savaneṣu śaṁsasi | vṛṣeva vājī śiśumatīr apītyā sarvato naḥ śakune bhadram ā vada viśvato naḥ śakune puṇyam ā vada ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

उ॒द्गा॒ताऽइ॑व। श॒कु॒ने॒। साम॑। गा॒य॒सि॒। ब्र॒ह्म॒पु॒त्रःऽइ॑व। सव॑नेषु। शं॒स॒सि॒। वृषा॑ऽइव। वा॒जी। शिशु॑ऽमतीः। अ॒पि॒ऽइत्य॑। स॒र्वतः॑। नः॒। श॒कु॒ने॒। भ॒द्रम्। आ। व॒द॒। वि॒श्वतः॑। नः॒। श॒कु॒ने॒। पुण्य॑म्। आ। व॒द॒॥

ऋग्वेद » मण्डल:2» सूक्त:43» मन्त्र:2 | अष्टक:2» अध्याय:8» वर्ग:12» मन्त्र:2 | मण्डल:2» अनुवाक:4» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (शकुने) पखेरू के समान सामर्थ्यवाले ! जो तुम (उद्गातेव) ऊर्ध्व स्वर से वेद को गाते हुए के समान (साम) सामवेद का (गायसि) गान करते हो (ब्रह्मपुत्र इव) चारों वेदों के ज्ञाता का जैसे कोई पुत्र हो वैसे (सवनेषु) यज्ञ सम्बन्ध में प्रातःकाल की क्रिया आदि में (शंससि) स्तुति करते सो तुम (वृषेव) महाबली बैल के समान (वाजी) बलवान् (शिशुमतीः) प्रशंसित बालकोंवाली स्त्रियों को (अपीत्य) निश्चय से प्राप्त होकर (नः) हम लोगों के लिये (सर्वतः) सब ओर से (भद्रम्) कल्याण का (आवद) उपदेश कर, हे (शकुने) कहने की शक्ति से युक्त पुरुष ! तू सब ओर विद्या का उपदेश कर, हे (शकुने) सब ओर से शक्तिमान् ! (नः) हम लोगों के लिये (विश्वतः) सब ओर से (पुण्यम्) पुण्य का (आवद) उपदेश कर ॥२॥
भावार्थभाषाः - जैसे वेदवक्ता विद्वान् जन नियम से पाठ और वेदोक्त आचार को करते हैं, वैसे उपदेश करनेवाले स्त्रीपुरुष सबकी उन्नति के लिये सर्वदा सत्योपदेश करें, जिससे सबके सुख सब ओर से बढ़ें ॥२॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे शकुने यस्त्वमुद्गातेव साम गायसि ब्रह्मपुत्र इव सवनेषु शंससि स त्वं वृषेव वाजी शिशुमतीरपीत्य नः सर्वतो भद्रमावद हे शकुने त्वं सर्वतो विद्यामावद। हे शकुने त्वं नो विश्वतः पुण्यमावद ॥२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (उद्गातेव) यथोद्गाता तथा (शकुने) पक्षिवच्छक्तिमन् (साम) (गायसि) (ब्रह्मपुत्र इव) ब्रह्माणश्चतुर्वेदवेत्तुः पुत्रस्तथा (सवनेषु) यज्ञसम्बन्धे प्रातःक्रियादिषु (शंससि) स्तौषि (वृषेव) महाबलिष्ठ वृषभवत् (वाजी) बलवान् (शिशुमतीः) प्रशस्ताः शिशवो विद्यन्ते यासां ताः (अपीत्य) निश्चयेन प्राप्य। अत्र संहितायामिति दीर्घः (सर्वतः) (नः) अस्मभ्यम् (शकुने) वक्तृत्वशक्तियुक्त (भद्रम्) (आवद) (विश्वतः) सर्वतः (नः) अस्मभ्यम् (शकुने) (पुण्यम्) (आ) (वद) ॥२॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। यथा वेदविदो नियमेन पाठं वेदोक्ताचारं च कुर्वन्ति तथोपदेशकाः स्त्रीपुरुषाः सर्वेषामुन्नतये सर्वदा सत्योपदेशान् कुर्वन्तु येन सर्वेषां सुखानि सर्वतो वर्द्धेरन् ॥२॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - (या मंत्रात उपमालंकार आहे. ) जसे वेदविद् विद्वान नियमाने (वेद) पाठ करतात व वेदोक्त आचरण करतात तसे उपदेश करणाऱ्या स्त्री-पुरुषांनी सर्वांच्या उन्नतीसाठी सदैव सत्योपदेश करावा, ज्यामुळे सर्वांचे सुख सगळीकडून वाढावे. ॥ २ ॥