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अ॒स्य र॒ण्वा स्वस्ये॑व पु॒ष्टिः संदृ॑ष्टिरस्य हिया॒नस्य॒ दक्षोः॑। वि यो भरि॑भ्र॒दोष॑धीषु जि॒ह्वामत्यो॒ न रथ्यो॑ दोधवीति॒ वारा॑न्॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

asya raṇvā svasyeva puṣṭiḥ saṁdṛṣṭir asya hiyānasya dakṣoḥ | vi yo bharibhrad oṣadhīṣu jihvām atyo na rathyo dodhavīti vārān ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒स्य। र॒ण्वा। स्वस्य॑ऽइव। पु॒ष्टिः। सम्ऽदृ॑ष्टिः। अ॒स्य॒। हि॒या॒नस्य॑। धक्षोः॑। वि। यः। भरि॑भ्रत्। ओष॑धीषु। जि॒ह्वाम्। अत्यः॑। न। रथ्यः॑। दो॒ध॒वी॒ति॒। वारा॑न्॥

ऋग्वेद » मण्डल:2» सूक्त:4» मन्त्र:4 | अष्टक:2» अध्याय:5» वर्ग:24» मन्त्र:4 | मण्डल:2» अनुवाक:1» मन्त्र:4


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - (यः) जो (रथ्यः) रथों में उत्तम प्रशंसित (अत्यः) सुशिक्षित तुरङ्ग उसके (न) समान (वरान्) बालकों को जैसे वैसे स्वीकार करने योग्य लोकों को और (जिह्वाम्) अपनी जिह्वा को (दोधवीति) निरन्तर कम्पाता है और (ओषधीषु) सोमलतादि औषधीयों में (विभरिभ्रत्) विशेष कर निरन्तर गुणों को धारण करता हुआ विद्यमान है उस (अस्य) इस की हुई (स्वस्येव) अपनी पुष्टि के समान दूसरे की (रण्वा) प्रशंसनीय (पुष्टिः) अर्थात् धातुवृद्धि और (हियानस्य) वद्धि को प्राप्त होते हुए (अस्य) इस (धक्षोः) दाह करनेवाले अग्नि की (संदृष्टिः) अच्छे प्रकार दृष्टि करनी चाहिये ॥४॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। मनुष्यों को जैसे अपने पोषण के लिये अग्निविद्या प्राप्त की जाती है, वैसे औरों के लिये भी करनी चाहिये। जो इन्धनों से बढ़ता है और पदार्थों को जलाता है, वह रथों में युक्त किया हुआ अग्नि शीघ्र गमन कराता है। जैसे वक्ता अपनी जिह्वा को कंपाता है, वैसे अग्नि भूगोलों को कंपाता है॥४॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

यो रथ्योऽत्यो न वारान् जिह्वाँश्च दोधवीति। ओषधीषु विभरिभ्रदस्ति तस्यास्य स्वस्येव रण्वा पुष्टिर्हियानस्यास्य धक्षोः संदृष्टिश्च कार्य्या ॥४॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अस्य) (रण्वा) प्रशंसनीया (स्वस्येव) (पुष्टिः) धातुवृद्धिः (संदृष्टिः) सम्यक् प्रेक्षणम् (अस्य) (हियानस्य) वर्द्धमानस्य। अत्र व्यत्ययेनात्मनेपदम्। (धक्षोः) दाहकस्य (वि) (यः) (भरिभ्रत्) भृशं धरन् (ओषधीषु) सोमलतादिषु (जिह्वाम्) (अत्यः) सुशिक्षितस्तुरङ्गः (न) इव (रथ्यः) रथेषु साधुः (दोधवीति) भृशं कम्पयति (वारान्) वालानिव वरणीयान् लोकान् ॥४॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्यथा स्वपोषणार्था अग्निविद्या प्राप्यते तथाऽन्यार्थाऽपि कार्य्या योऽग्निरिन्धनैर्वर्द्धते दहति स रथेषु योजितः सन् सद्यो गमयति यथा वक्ता जिह्वां कम्पयति तथाऽग्निः भू्गोलान् कम्पयति ॥४॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. आपल्या पोषणासाठी माणूस अग्नीविद्या प्राप्त करतो तशी इतरांसाठीही करावी. जो अग्नी इंधनाने वाढतो व पदार्थांचे ज्वलन करतो तो रथात (वाहनात) युक्त केलेला अग्नी शीघ्र गमन करवितो. जसे वक्ता बोलताना त्याच्या जिह्वेत कंपन निर्माण होते तसे अग्नी भूगोलांना कंपित करतो. ॥ ४ ॥