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अ॒ग्निं दे॒वासो॒ मानु॑षीषु वि॒क्षु प्रि॒यं धुः॑ क्षे॒ष्यन्तो॒ न मि॒त्रम्। स दी॑दयदुश॒तीरूर्म्या॒ आ द॒क्षाय्यो॒ यो दास्व॑ते॒ दम॒ आ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

agniṁ devāso mānuṣīṣu vikṣu priyaṁ dhuḥ kṣeṣyanto na mitram | sa dīdayad uśatīr ūrmyā ā dakṣāyyo yo dāsvate dama ā ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒ग्निम्। दे॒वासः॑। मानु॑षीषु। वि॒क्षु। प्रि॒यम्। धुः॒। क्षे॒ष्यन्तः॑। न। मि॒त्रम्। सः। दी॒द॒य॒त्। उ॒श॒तीः। ऊर्म्याः॑। आ। द॒क्षाय्यः॑। यः। दास्व॑ते। दमे॑। आ॥

ऋग्वेद » मण्डल:2» सूक्त:4» मन्त्र:3 | अष्टक:2» अध्याय:5» वर्ग:24» मन्त्र:3 | मण्डल:2» अनुवाक:1» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर अग्नि-कार्यों से विद्वानों के विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - जिस (अग्निम्) अग्नि को (मानुषीषु) मनुष्य सम्बन्धी (विक्षु) प्रजाजनों में (क्षेष्यन्तः) निवास करते हुए (देवासः) विद्वान् जन (प्रियम्) प्रिय मनोहर (मित्रम्) मित्र के (न) समान (आधुः) अच्छे प्रकार स्थापन करें (यः) जो (दक्षाय्यः) सब पदार्थों को छिन्न-भिन्न करनेवाला अग्नि (दमे) कलाघर में (दास्वते) दानशील जन के लिये (उशतीः) मनोहर (ऊर्म्याः) रात्रियों को (आ, दीदयत्) प्रज्वलित करता प्रकाशित करता है (सः) वह सबको संप्रयुक्त करना चाहिये अर्थात् वह कलाघरों में युक्त करना चाहिये ॥३॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो अग्नि मित्र के समान सुख देता और सब प्रजाजनों में प्रदीपसमान सब वस्तुओं को प्रकाशित करता है, उसका विद्वानों को अपने कामों में अनुकूल योग करना चाहिये ॥३॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनरग्निकार्यैर्विद्वद्विषयमाह।

अन्वय:

यमग्निं मानुषीषु विक्षु क्षेष्यन्तो देवासः प्रियं मित्रं नाधुः। यो दक्षाय्यो दमे दास्वते उषतीरुर्म्या आदीदयत्स सर्वैः संप्रयोक्तव्यः ॥३॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अग्निम्) पावकम् (देवासः) विद्वांसः (मानुषीषु) मनुष्याणामिमासु (विक्षु) प्रजासु (प्रियम्) कमनीयम् (धुः) दध्युः। अत्राडभावः। (क्षेष्यन्तः) निवसन्तः (न) इव (मित्रम्) सखायम् (सः) (दीदयत्) दीदयति प्रज्वलति। अत्राडभावः। दीदयतीति ज्वलतिकर्मा० निघं० १। १६ (उशतीः) कमनीयाः (ऊर्म्याः) रात्रीः (आ) समन्तात् (दक्षाय्यः) हिंसकः (यः) (दास्वते) दात्रे (दमे) गृहे (आ) समन्तात् ॥३॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। योग्निर्मित्रवत्सु्खयति सर्वासु प्रजासु प्रदीपवद् द्योतयति स विद्वद्भिः कार्येष्वनुयोजनीयः ॥३॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जो अग्नी मित्राप्रमाणे सुख देतो व दीपकाप्रमाणे लोकांमध्ये सर्व वस्तूंना प्रकाशित करतो, त्याचा विद्वानांनी आपल्या कार्यात उपयोग करावा. ॥ ३ ॥