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विश्व॑स्य॒ हि श्रु॒ष्टये॑ दे॒व ऊ॒र्ध्वः प्र बा॒हवा॑ पृ॒थुपा॑णिः॒ सिस॑र्ति। आप॑श्चिदस्य व्र॒त आ निमृ॑ग्रा अ॒यं चि॒द्वातो॑ रमते॒ परि॑ज्मन्॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

viśvasya hi śruṣṭaye deva ūrdhvaḥ pra bāhavā pṛthupāṇiḥ sisarti | āpaś cid asya vrata ā nimṛgrā ayaṁ cid vāto ramate parijman ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

विश्व॑स्य। हि। श्रु॒ष्टये॑। दे॒वः। ऊ॒र्ध्वः। प्र। बा॒हवा॑। पृ॒थुऽपा॑णिः। सिस॑र्ति। आपः॑। चि॒त्। अ॒स्य॒। व्र॒ते। आ। निऽमृ॑ग्राः। अ॒यम्। चि॒त्। वातः॑। र॒म॒ते॒। परि॑ऽज्मन्॥

ऋग्वेद » मण्डल:2» सूक्त:38» मन्त्र:2 | अष्टक:2» अध्याय:8» वर्ग:2» मन्त्र:2 | मण्डल:2» अनुवाक:4» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर ईश्वर के विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जो (अयम्) यह (परिज्मन्) सब ओर से व्याप्त होता हुआ वा (वातः) पवन (रमते) क्रीडा को करता है (अस्य) इसके (व्रते) शीलस्वभाव के निमित्त (निमृग्राः) निरन्तर शुद्धि के हेतु (आपः) जल (चित्) भी (आ) अच्छे प्रकार रमण करते हैं जो (विश्वस्य) जगत् के बीच (ऊर्ध्वः) ऊपर स्थित (पृथुपाणिः) जिसके विस्तीर्ण हाथों के समान किरण वह (देवः) दिव्य सुख देनेवाला (सविता) जगत् का उत्पन्न करनेवाला (श्रुष्टये) शीघ्रता के लिये (बाहवा) भुजाओं के (चित्) समान (प्र,सिसर्त्ति) जाता है, यह सब उक्त वृत्तान्त परमेश्वर के बीच में (हि) ही वर्त्तमान है ॥२॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो परमेश्वर भूमि, जल, अग्नि और पवनों को न बनाता तो कुछ भी अपने आप उत्पन्न न हो सके ॥२॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनरीश्वरविषयमाह।

अन्वय:

हे मनुष्या योऽयं परिज्मन्वातो रमतेऽस्य व्रते निमृग्रा आपश्चिदारमन्ति यो विश्वस्य मध्य ऊर्ध्वः पृथुपाणिर्देवः सविता श्रुष्टये वाहवा चिदिव प्रसिसर्त्ति एतत्सर्वं परमेश्वरे हि वर्त्तते ॥२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (विश्वस्य) जगतो मध्ये (हि) खलु (श्रुष्टये) शीघ्रत्वाय (देवः) दिव्यसुखप्रदः (ऊर्ध्वः) ऊर्ध्वं स्थित उत्कृष्टः (प्र) (बाहवा) बाहू। अत्र सुपां सुलुगिति आकारादेशः (पृथुपाणिः) पृथवो विस्तीर्णः पाणिरिव किरणा यस्य सः (सिसर्त्ति) गच्छति (आपः) जलानि (चित्) (अस्य) (व्रते) शीले (आ) (निमृग्राः) नितरां शुद्धिहेतवः (अयम्) (चित्) (वातः) वायुः (रमते) क्रीडते (परिज्मन्) परितः सर्वतो व्याप्तः ॥२॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यदि परमेश्वरो भूमिजलाग्निपवनान् न निर्मिमीते तर्हि किञ्चिदपि स्वयमुत्पत्तुं न शक्नुयात् ॥२॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जर परमेश्वराने भूमी, जल, अग्नी व वायू बनविले नसते तर आपोआप काहीही उत्पन्न झाले नसते. ॥ २ ॥