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यमु॒ पूर्व॒महु॑वे॒ तमि॒दं हु॑वे॒ सेदु॒ हव्यो॑ द॒दिर्यो नाम॒ पत्य॑ते। अ॒ध्व॒र्युभिः॒ प्रस्थि॑तं सो॒म्यं मधु॑ पो॒त्रात्सोमं॑ द्रविणोदः॒ पिब॑ ऋ॒तुभिः॑॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yam u pūrvam ahuve tam idaṁ huve sed u havyo dadir yo nāma patyate | adhvaryubhiḥ prasthitaṁ somyam madhu potrāt somaṁ draviṇodaḥ piba ṛtubhiḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यम्। ऊँ॒ इति॑। पूर्व॑म्। अहु॑वे। तम्। इ॒दम्। हु॒वे॒। सः। इत्। ऊँ॒ इति॑। हव्यः॑। द॒दिः। यः। नाम॑। पत्य॑ते। अ॒ध्व॒र्युऽभिः॑। प्रऽस्थि॑तम्। सो॒म्यम्। मधु॑। पो॒त्रात्। सोम॑म्। द्र॒वि॒णः॒ऽदः॒। पिब॑। ऋ॒तुऽभिः॑॥

ऋग्वेद » मण्डल:2» सूक्त:37» मन्त्र:2 | अष्टक:2» अध्याय:8» वर्ग:1» मन्त्र:2 | मण्डल:2» अनुवाक:4» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (द्रविणोदः) धन देनेवाले जैसे (यः) जो (ददिः) देनेवाला (हव्यः) ग्रहण करने योग्य मैं (यम्, उ) जिसको (पूर्वम्) प्रथम (अहुवे) होमता हूँ (सः) सो मैं (तम्) उस (इदम्) इसको (नाम) प्रसिद्ध (इत्) ही (उ) तर्क-वितर्क के साथ (पत्यते) पति करने अर्थात् रक्षक की इच्छा करनेवाले के लिये (हुवे) ग्रहण करता हूँ। और (अध्वर्युभिः) अपने को हिंसा न चाहनेवाले जनों तथा (तुभिः) वसन्तादि तुओं के साथ वर्त्तमान जैसे मैं (प्रस्थितम्) ओषधियों से निकाले हुए (सोम्यम्) सोम के योग्य (मधु) मधुर गुणयुक्त रस को पीता हूँ वैसे (पोत्रात्) पवित्र करनेवाले से (सोमम्) महौषधियों के रस को तू (पिब) पी ॥२॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो अविद्वान् पुरुष विद्वानों के साथ सङ्गति कर अन्न पान आदि की अच्छी परीक्षा करके उसको सेवते हैं, वे सुखी होते हैं ॥२॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे द्रविणोदो यथा यो ददिर्हव्योऽहं यमु पूर्वमहुवे सोऽहं तमिदं नामेदु पत्यते हुवे। अध्वर्युभिरृतुभिस्सह वर्त्तमानो यथाऽहं प्रस्थितं सोम्यं मधु पिबामि तथा पोत्रात्सोमं त्वं पिब ॥२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (यम्) (उ) वितर्के (पूर्वम्) (अहुवे) जुहोमि, अत्र बहुलं छन्दस्यमाङ्योगेऽपीत्यडागमः (तम्) (इदम्) (हुवे) गृह्णामि (सः) (इत्) एव (उ) (हव्यः) ग्रहीतुमर्हः (ददिः) दाता (यः) (नाम) (पत्यते) पतिं कुर्वते (अध्वर्युभिः) आत्मनोऽहिंसामनिच्छुभिः (प्रस्थितम्) ओषधिभ्यो निष्पादितम् (सोम्यम्) सोमार्हम् (मधु) मधुरगुणयुक्तम् (पोत्रात्) पवित्रकर्त्तुः (सोमम्) महौषधिरसम् (द्रविणोदः) धनप्रद (पिब) (तुभिः) ॥२॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। येऽविद्वांसो विद्वद्भिः सह सङ्गत्यान्नपानादिकं सुपरीक्ष्य सेवन्ते ते सुखिनो भवन्ति ॥२॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे अविद्वान पुरुष विद्वानांबरोबर संगती करून अन्न व पाणी यांची परीक्षा करून त्याचे सेवन करतात, ते सुखी होतात. ॥ २ ॥