उपे॑मसृक्षि वाज॒युर्व॑च॒स्यां चनो॑ दधीत ना॒द्यो गिरो॑ मे। अ॒पां नपा॑दाशु॒हेमा॑ कु॒वित्स सु॒पेश॑सस्करति॒ जोषि॑ष॒द्धि॥
upem asṛkṣi vājayur vacasyāṁ cano dadhīta nādyo giro me | apāṁ napād āśuhemā kuvit sa supeśasas karati joṣiṣad dhi ||
उप॑। ई॒म्। अ॒सृ॒क्षि॒। वा॒ज॒ऽयुः। व॒च॒स्याम्। चनः॑। द॒धी॒त॒। ना॒द्यः। गिरः॑। मे॒। अ॒पाम्। नपा॑त्। आ॒शु॒ऽहेमा॑। कु॒वित्। सः। सु॒ऽपेश॑सः। क॒र॒ति॒। जोषि॑षत्। हि॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब पन्द्रह चा वाले पैंतीसवें सूक्त का आरम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में अग्नि के विषय को कहते हैं।
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अथाऽग्निविषयमाह।
यो वाजयुर्वचस्यामुपेमसृक्षि चनो दधीत योऽपांनपान्नाद्य आशुहेमा कुविन्मे गिरस्सम्बन्ध्यस्ति स हि सुपेशसस्करति जोषिषच्च ॥१॥
माता सविता जोशी
(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)या सूक्तात अग्नी, मेघ, अपत्य, विवाह व विद्वानाच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची मागच्या सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणली पाहिजे.