वांछित मन्त्र चुनें

मा त्वा॑ रुद्र चुक्रुधामा॒ नमो॑भि॒र्मा दुष्टु॑ती वृषभ॒ मा सहू॑ती। उन्नो॑ वी॒राँ अ॑र्पय भेष॒जेभि॑र्भि॒षक्त॑मं त्वा भि॒षजां॑ शृणोमि॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

mā tvā rudra cukrudhāmā namobhir mā duḥṣṭutī vṛṣabha mā sahūtī | un no vīrām̐ arpaya bheṣajebhir bhiṣaktamaṁ tvā bhiṣajāṁ śṛṇomi ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

मा। त्वा॒। रु॒द्र॒। चु॒क्रु॒धा॒म॒। नमः॑ऽभिः। मा। दुःऽस्तु॑ती। वृ॒ष॒भ॒। मा। सऽहू॑ती। उत्। नः॒। वी॒रान्। अ॒र्प॒य॒। भे॒ष॒जेभिः॑। भि॒षक्ऽत॑मम्। त्वा॒। भि॒षजा॑म्। शृ॒णो॒मि॒॥

ऋग्वेद » मण्डल:2» सूक्त:33» मन्त्र:4 | अष्टक:2» अध्याय:7» वर्ग:16» मन्त्र:4 | मण्डल:2» अनुवाक:4» मन्त्र:4


बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वैद्यक विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (वृषभ) श्रेष्ठ (इन्द्र) कुपथ्यकारियों को रुलानेवाले ! हम लोग (दुष्टुती) दुष्ट स्तुति से (त्वा) आपके (प्रति) प्रति (मा) मत (चुक्रुधाम) क्रोध करें (सहूती) समान स्पर्द्धा से (मा) मत क्रोध करें आपके साथ विरोध (मा) मत करें किन्तु (नमोभिः) सत्कार के साथ निरन्तर सत्कार करें, जिन (त्वा) आपको मैं (भिषजाम्) वैद्यों के बीच (भिषक्तमम्) वैद्यों के शिरोमणि (शृणोमि) सुनता हूँ सो आप (वीरान्) वीर नीरोग पुत्रादिकों को (उत्,अर्पण) उत्तमता से सौपें ॥४॥
भावार्थभाषाः - किसी को वैद्य के साथ विरोध कभी न करना चाहिये न इसके साथ ईर्ष्या करनी चाहिये किन्तु प्रीति के साथ सर्वोत्तम वैद्य की सेवा करनी चाहिये, जिससे रोगों से अलग होकर सुख निरन्तर बढ़े ॥४॥
बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्वैद्यकविषयमाह।

अन्वय:

हे वृषभ रुद्र वयं दुष्टुती त्वा प्रति मा चुक्रुधाम सहूती मा चुक्रुधाम त्वया सह विरोधं मा कुर्य्याम किन्तु नमोभिः सततं सत्कुर्य्याम यन्त्वाहं भिषजां भिषक्तमं शृणोमि स त्वं भेषजेभिर्नो वीरानुदर्पय ॥४॥

पदार्थान्वयभाषाः - (मा) (त्वा) त्वाम् (रुद्र) कुपथ्यकारिणां रोदयितः (चुक्रुधाम) कुपिता भवेम। अत्राऽन्येषामपीति दीर्घ० (नमोभिः) सत्कारैः (मा) (दुष्टुती) दुष्टया स्तुत्या। अत्र सुपामिति पूर्वसवर्णः (वृषभ) श्रेष्ठ (मा) (सहूती) समानया स्पर्द्धया (उत) (नः) अस्मभ्यम् (वीरान्) अरोगान् बलिष्ठान् पुत्रादीन् (अर्पय) समर्पय (भेषजेभिः) रोगनिवारकैरौषधैः (भिषक्तमम्) वैद्यशिरोमणिम् (त्वा) त्वाम् (भिषजाम्) वैद्यानां मध्ये (शृणोमि) ॥४॥
भावार्थभाषाः - केनचिद्वैद्येन सह विरोधः कदाचिन्न कर्त्तव्यो नैतेन सहेर्ष्या कार्या किन्तु प्रीत्या सर्वोत्तमो वैद्यः सेवनीयो येन रोगेभ्यः पृथग् भूत्वा सुखं सततं वर्द्धेत ॥४॥
बार पढ़ा गया

माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - कुणीही वैद्याला विरोध करता कामा नये किंवा त्याची ईर्षाही करता कामा नये, तर प्रेमाने वैद्याची सेवा केली पाहिजे, त्यामुळे रोग दूर होऊन सतत सुख वाढते. ॥ ४ ॥