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ए॒वा ब॑भ्रो वृषभ चेकितान॒ यथा॑ देव॒ न हृ॑णी॒षे न हंसि॑। ह॒व॒न॒श्रुन्नो॑ रुद्रे॒ह बो॑धि बृ॒हद्व॑देम वि॒दथे॑ सु॒वीराः॑॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

evā babhro vṛṣabha cekitāna yathā deva na hṛṇīṣe na haṁsi | havanaśrun no rudreha bodhi bṛhad vadema vidathe suvīrāḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ए॒व। ब॒भ्रो॒ इति॑। वृ॒ष॒भ॒। चे॒कि॒ता॒न॒। यथा॑। दे॒व॒। न। हृ॒णी॒षे। न। हंसि॑। ह॒व॒न॒ऽश्रुत्। नः॒। रु॒द्र॒। इ॒ह। बो॒धि॒। बृ॒हत्। व॒दे॒म॒। वि॒दथे॑। सु॒ऽवीराः॑॥

ऋग्वेद » मण्डल:2» सूक्त:33» मन्त्र:15 | अष्टक:2» अध्याय:7» वर्ग:18» मन्त्र:5 | मण्डल:2» अनुवाक:4» मन्त्र:15


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषयको अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (बभ्रो) धारण वा पोषण करने वा (वृषभ) रोग निवारण करने से बल के देने वा (चेकितान) विज्ञान देने वा (देव) मनोहर (रुद्र) और सर्वरोग निवारनेवाले जिस कारण (हवनश्रुत्) देने लेने को सुननेवाले आप (इह) इसमें (यथा) जैसे (नः) हम लोगों के सुखों को (न) नहीं (हृणीषे) हरते हैं सबके सुखको (बोधि) जानें इससे हम लोग (सुवीराः) सुन्दर पराक्रम को प्राप्त होते हुए ही वैसे (चिदथे) ओषधियों के विज्ञानव्यवहार में (बृहत्) बहुत (वदेम) कहें ॥१५॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो वैद्य जन राज्य और न्याय के अधीश हों वे अन्याय से किसी का कुछ भी धन न हरें, न किसी को मारें किन्तु सदा अच्छे पथ्य और ओषधियों के व्यवहार सेवन से बल और पराक्रम को बढ़ावें ॥१५॥ इस सूक्त में वैद्य, राजपुरुष, और विद्या ग्रहण के व्यवहार वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ संगति है, यह जानना चाहिये ॥ यह अठारहवाँ वर्ग और तैंतीसवाँ सूक्त समाप्त हुआ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे बभ्रो वृषभ चेकितान देव रुद्र यतो हवनश्रुत् त्वमिह यथा नः सुखानि न हृणीषे सर्वेषां सुखं बोधि तस्माद्वयं सुवीराः सन्त एव यथा विदथे बृहद्वदेम ॥१५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (एव) निश्चये। अत्र निपातस्य चेति दीर्घः (बभ्रो) धर्त्तः पोषक (वृषभ) रोगनिवारणेन बलप्रद (चेकितान) विज्ञापक (यथा) (देव) कमनीय (न) निषेधे (हृणीषे) हरसि। अत्र विकरणव्यत्ययेन श्ना (न) निषेधे (हंसि) (हवनश्रुत्) या हवनं दानमादानं शृणोति (नः) अस्माकम् (रुद्र) सर्वरोगनिवारक (इह) अस्मिन् (बोधि) बुध्यस्व (बृहत्) (वदेम) (विदथे) औषधविज्ञानव्यवहारे (सुवीराः) सुष्ठुप्राप्तवीर्य्याः सन्तः ॥१५॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। ये वैद्याः राज्यन्यायाधीशाः स्युस्तेऽन्यायेन कस्यचित्किञ्चिन्न हरेयुः। न कञ्चिद्धन्युः किन्तु सदा सुपथ्यौषधव्यवहारसेवनेन बलपराक्रमान् वर्द्धयेयुरिति ॥१५॥ अस्मिन् सूक्ते चिकित्सकराजपुरुषपठनव्यवहारवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेद्यम् ॥ इत्यष्टादशो वर्गस्त्रयस्त्रिंशं सूक्तं च समाप्तम् ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - भावार्थ- या मंत्रात उपमालंकार आहे. जे वैद्य राज्याचे न्यायाधीश आहेत त्यांनी अन्यायाने कुणाचे धन घेऊ नये. कुणाचे हनन करू नये; परंतु सदैव चांगले पथ्य व औषधाच्या सेवनाने बल व पराक्रम वाढवावा. ॥ १५ ॥