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परि॑ णो हे॒ती रु॒द्रस्य॑ वृज्याः॒ परि॑ त्वे॒षस्य॑ दुर्म॒तिर्म॒ही गा॑त्। अव॑ स्थि॒रा म॒घव॑द्भ्यस्तनुष्व॒ मीढ्व॑स्तो॒काय॒ तन॑याय मृळ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

pari ṇo hetī rudrasya vṛjyāḥ pari tveṣasya durmatir mahī gāt | ava sthirā maghavadbhyas tanuṣva mīḍhvas tokāya tanayāya mṛḻa ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

परि॑। नः॒। हे॒तिः। रु॒द्रस्य॑। वृ॒ज्याः॒। परि॑। त्वे॒षस्य॑। दुःऽम॒तिः। म॒ही। गा॒त्। अव॑। स्थि॒रा। म॒घव॑त्ऽभ्यः। त॒नु॒ष्व॒। मीढ्वः॑। तो॒काय॑। तन॑याय। मृ॒ळ॒॥

ऋग्वेद » मण्डल:2» सूक्त:33» मन्त्र:14 | अष्टक:2» अध्याय:7» वर्ग:18» मन्त्र:4 | मण्डल:2» अनुवाक:4» मन्त्र:14


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (मीढ्वः) सुखों से सींचनेवाले वैद्य जो (रुद्रस्य) दुःख देनेवाले रोगको (हेतिः) वज्र से पीड़ा के समान वा (वृज्याः) वर्जने योग्य पीड़ा और (त्वेषस्य) प्रदीप्त अर्थात् प्रबल की (दुर्मतिः) दुष्टमति (नः) हमलोगों को (परि) सब ओर से प्राप्त होवे, तथा जो (मघवद्भ्यः) प्रशंसित धनवालों से (मही) प्रशंसनीय वाणी हम लोगों को सब ओर से शीघ्र उत्पन्न हुए सन्तान के लिये (तनयाय) जोकि कुमारावस्था को प्राप्त है उसके लिये विस्तारो, और उनसे सबको (मृळ) सुखी करो और रोगों को (अव,तनुष्व) दूर करो ॥१४॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को उत्तम शिक्षा से दुष्टमति को तथा वैद्यक रीति से सब रोगों का निवारण कर अपने कुल को सदा सुखी करना चाहिये ॥१४॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे मीढ्वो वैद्य यो रुद्रस्य हेतिर्वृज्यास्त्वेषस्य दुर्मतिश्च नोऽस्मान् पर्य्यगात्। या मघवद्भ्यो मह्यस्मान् पर्य्यगात्स्थिरा च गात् तानि तोकाय तनयाय तनुष्व तैः सर्वान्मृळ रोगानवतनुष्व दूरी कुरु ॥१४॥

पदार्थान्वयभाषाः - (परि) सर्वतः (नः) अस्मान् (हेतिः) वज्रादिव पीडा। हेतिरिति वज्रना० निघं० २। २०। (रुद्रस्य) दुःखप्रदस्य रोगस्य (वृज्याः) वर्जनीयाः पीडाः (परि) अभितः (त्वेषस्य) प्रदीप्तस्य (दुर्मतिः) दुष्टा मतिः (मही) महती पूज्या वाक्। महीति वाङ्नाम निघं० १। ११ (गात्) प्राप्नुयात् (अव) (स्थिरा) स्थिराणि (मघवद्भ्यः) पूजितधनेभ्यः (तनुष्व) विस्तृणीहि (मीढ्वः) सुखसेचक (तोकाय) सद्यो जातायाऽपत्याय (तनयाय) प्राप्तकुमाराऽवस्थाय (मृळ) सुखय ॥१४॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यैः सुशिक्षया दुष्टां मतिं वैद्यकरीत्या सर्वान् रोगान्निवार्य्य स्वं स्वं कुलं सदा सुखनीयम् ॥१४॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - माणसांनी उत्तम शिक्षणाने दुष्ट बुद्धी व वैद्यक रीतीने सर्व रोगांचे निवारण करून आपापल्या कुळाला सदैव सुखी ठेवावे. ॥ १४ ॥