आ ते॑ पितर्मरुतां सु॒म्नमे॑तु॒ मा नः॒ सूर्य॑स्य सं॒दृशो॑ युयोथाः। अ॒भि नो॑ वी॒रो अर्व॑ति क्षमेत॒ प्र जा॑येमहि रुद्र प्र॒जाभिः॑॥
ā te pitar marutāṁ sumnam etu mā naḥ sūryasya saṁdṛśo yuyothāḥ | abhi no vīro arvati kṣameta pra jāyemahi rudra prajābhiḥ ||
आ। ते॒। पि॒तः॒। म॒रु॒ता॒म्। सु॒म्नम्। ए॒तु॒। मा। नः॒। सूर्य॑स्य। स॒म्ऽदृशः॑। यु॒यो॒थाः॒। अ॒भि। नः॒। वी॒रः। अर्व॑ति। क्ष॒मे॒त॒। प्र। जा॒ये॒म॒हि॒। रु॒द्र॒। प्र॒ऽजाभिः॑॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब पन्द्रह चावाले तैंतीसवें सूक्त का आरम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में वैद्यक विषय को कहते हैं।
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अथ चिकित्सकविषयमाह।
हे मरुतां पिता रुद्र सूर्यस्य संदृशस्ते सकाशान्न सुम्नमा एतु त्वं सुखादस्मान्मा युयोथा यतोऽर्वति स्थित्वा नो वीरोऽभिक्षमेत येन वयं प्रजाभिः सह प्रजायेमहि ॥१॥
माता सविता जोशी
(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)या सूक्तात वैद्य, राजपुरुष व विद्याग्रहणाचे व्यवहारवर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची मागील सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती जाणावी.