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सिनी॑वालि॒ पृथु॑ष्टुके॒ या दे॒वाना॒मसि॒ स्वसा॑। जु॒षस्व॑ ह॒व्यमाहु॑तं प्र॒जां दे॑वि दिदिड्ढि नः॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

sinīvāli pṛthuṣṭuke yā devānām asi svasā | juṣasva havyam āhutam prajāṁ devi didiḍḍhi naḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सिनी॑वालि। पृथु॑ऽस्तुके। या। दे॒वाना॑म्। असि॑। स्वसा॑। जु॒षस्व॑। ह॒व्यम्। आऽहु॑तम्। प्र॒ऽजाम्। दे॒वि॒। दि॒दि॒ड्ढि॒। नः॒॥

ऋग्वेद » मण्डल:2» सूक्त:32» मन्त्र:6 | अष्टक:2» अध्याय:7» वर्ग:15» मन्त्र:6 | मण्डल:2» अनुवाक:3» मन्त्र:6


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (पृथुष्टुके) मोटी-मोटी जंघाओंवाली (सिनीवालि) जो अतिप्रेम से युक्त तू (देवानाम्) विद्वानों की (स्वसा) बहिन (असि) है सो तू मैंने जो (आहुतम्) सब ओर से होमा है उस (हव्यम्) देने योग्य द्रव्य को (जुषस्व) प्रीति से सेवन कर, हे (देवि) कामना करती हुई स्त्री तू हमारी (प्रजाम्) प्रजा को (दिदिड्ढि) देओ ॥६॥
भावार्थभाषाः - जो विद्वानों के कुल की कन्या विद्वानों की बन्धु ब्रह्मचर्य से विद्या को प्राप्त हुई प्रकाशमान हो उसे पत्नी कर विधि से इसमें सन्तानों को जो उत्पन्न करे, वह पुरुष और वह स्त्री दोनों सुखी हों ॥६॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे पृथुष्टुके सिनीवालि या त्वं देवानां स्वसासि सा त्वं मयाहुतं हव्यं जुषस्व। हे देवि त्वं नः प्रजां दिदिड्ढि ॥६॥

पदार्थान्वयभाषाः - (सिनीवालि) प्रेम्णायुक्ते (पृथुष्टुके) विस्तीर्णजघने (या) (देवानाम्) विदुषाम् (असि) (स्वसा) भगिनी (जुषस्व) सेवस्व (हव्यम्) दातुमर्हम् (आहुतम्) समन्तात् प्रक्षिप्तम् (प्रजाम्) (देवि) कामयमाने (दिदिड्ढि) उपाचिनुहि। अत्र बहुलं छन्दसीति शपः श्लुः (नः) अस्मान् ॥६॥
भावार्थभाषाः - या विद्वत्कुलस्य कन्या विद्वद्बन्धुर्ब्रह्मचर्येण प्राप्तविद्या प्रकाशमाना भवेत् तां पत्नीं विधाय विधिनास्यां सन्तानानि य उत्पादयेत् स च सततं सुखिनौ स्याताम् ॥६॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जी विद्वान कुलातील कन्या असेल, जिचा बंधू विद्वान असेल व जिने ब्रह्मचर्यपूर्वक विद्या प्राप्त केलेली असेल तिचा पत्नी या नात्याने स्वीकार करून जो विधीपूर्वक संतती उत्पन्न करतो तो पुरुष व स्त्री दोघेही सुखी होतात. ॥ ६ ॥