वांछित मन्त्र चुनें

उ॒त वः॒ शंस॑मु॒शिजा॑मिव श्म॒स्यहि॑र्बु॒ध्न्यो॒३॒॑ज एक॑पादु॒त। त्रि॒त ऋ॑भु॒क्षाः स॑वि॒ता चनो॑ दधे॒ऽपां नपा॑दाशु॒हेमा॑ धि॒या शमि॑॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

uta vaḥ śaṁsam uśijām iva śmasy ahir budhnyo ja ekapād uta | trita ṛbhukṣāḥ savitā cano dadhe pāṁ napād āśuhemā dhiyā śami ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

उ॒त। वः॒। शंस॑म्। उ॒शिजा॑म्ऽइव। श्म॒सि॒। अहिः॑। बु॒ध्न्यः॑। अ॒जः। एक॑ऽपात्। उ॒त। त्रि॒तः। ऋ॒भु॒ऽक्षाः। स॒वि॒ता। चनः॑। द॒धे॒। अ॒पाम्। नपा॑त्। आ॒शु॒ऽहेमा॑। धि॒या। शमि॑॥

ऋग्वेद » मण्डल:2» सूक्त:31» मन्त्र:6 | अष्टक:2» अध्याय:7» वर्ग:14» मन्त्र:6 | मण्डल:2» अनुवाक:3» मन्त्र:6


बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर हम मनुष्यों को क्या करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वानो ! जैसे (त्रितः) ब्रह्मचर्य अध्ययन और विचार इन तीन कर्मों से (भुक्षा) मेधावी (सविता) ऐश्वर्य्य करनेहारा (नपात्) न गिरनेवाला वा पग आदि अवयवों से रहित (आशुहेमा) शीघ्र बढ़नेवाला (उत) और (अजः) कभी न उत्पन्न होनेवाला (एकपात्) एकप्रकार की प्राप्तियुक्त (अहिः) व्याप्तिशील (बुध्न्यः) अन्तरिक्ष में व्याप्त मेघ के तुल्य वर्त्तमान मैं (धिया) बुद्धि वा कर्म से (शमि) कर्म में प्रवृत्त होऊँ (अपाम्) प्राणों के (चनः) अन्न को (दधे) धारण करता हूँ वैसे हे पत्नी तू प्रवृत्त हो, जैसे हम (अशितामिव) कामना के योग्य (वः) तुम विद्वानों की (शंसम्) स्तुति को (श्मसि) चाहते हैं (उत) और तुमको धारण करें, वैसे तुमलोग भी हमारे विषय में वर्त्तो ॥६॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जैसे ईश्वर अजन्मा कामना के योग्य सत्य गुणकर्मस्वभाववाला सेवने योग्य है, वैसे हम सब जीव लोग हैं, इससे ब्रह्मचर्यादि शुभ कर्म में हमको सदा वर्त्तना चाहिये ॥६॥
बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनरस्माभिर्मनुष्यैः किं कर्त्तव्यमित्याह।

अन्वय:

हे विद्वांसो यथा त्रित भुक्षाः सविता नपादाशुहेमा उताप्यज एकपादाहिर्बुध्न्य इव वर्त्तमानोऽहं धिया शमि प्रवर्त्ते अपां चनो दधे तथा हे पत्नि त्वं प्रवर्त्तस्व यथा वयमुशिजामिव वः शंसं श्मस्युतापि युष्मान्दधीमहि तथा यूयमप्यस्मासु वर्त्तध्वम् ॥६॥

पदार्थान्वयभाषाः - (उत) (वः) युष्माकम् (शंसम्) (स्तुतिम्) (उशिजामिव) कमनीयानां विदुषामिव (श्मसि) कामयेमहि (अहिः) व्यापनशीलो मेघः (बुध्न्यः) बुध्नेऽन्तरिक्षे व्याप्तः (अजः) न जायते कदाचित् सः (एकपात्) एकः पादो गमनं प्रापणं यस्य सः (उत) एव (त्रितः) ब्रह्मचर्य्याऽध्ययनविचारेभ्यः (भुक्षाः) मेधावी (सविता) ऐश्वर्य्यकारकः (चनः) अन्नम् (दधे) (अपाम्) प्राणानाम् (नपात्) न पतति कदाचिद्यद्वा न सन्ति पादादयोऽवयवा यस्य सः (आशुहेमा) शीघ्रं वर्द्धमानः (धिया) प्रज्ञया कर्मणा वा (शमि) कर्माणि। अत्र वर्णव्यत्ययेन ह्रस्वः सुपां सुलुगिति सुलोपः ॥६॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथेश्वरोऽजन्मा कमनीयः सत्यगुणकर्मस्वभावः सेवनीयोऽस्ति तथा वयं सर्वे जीवाः स्मोऽतो ब्रह्मचर्यादिभिश्शुभकर्मण्यस्माभिः सदा वर्त्तितव्यम् ॥६॥
बार पढ़ा गया

माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. जसा ईश्वर अजन्मा, कामना करण्यायोग्य, सत्यगुण स्वभावयुक्त व स्वीकार करण्यायोग्य आहे तसे आम्ही सर्व जीव आहोत. त्यासाठी ब्रह्मचर्य इत्यादी शुभकर्मात आम्ही सदैव राहावे. ॥ ६ ॥