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उ॒त त्ये दे॒वी सु॒भगे॑ मिथू॒दृशो॒षासा॒नक्ता॒ जग॑तामपी॒जुवा॑। स्तु॒षे यद्वां॑ पृथिवि॒ नव्य॑सा॒ वचः॑ स्था॒तुश्च॒ वय॒स्त्रिव॑या उप॒स्तिरे॑॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

uta tye devī subhage mithūdṛśoṣāsānaktā jagatām apījuvā | stuṣe yad vām pṛthivi navyasā vacaḥ sthātuś ca vayas trivayā upastire ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

उ॒त। त्ये। दे॒वी इति॑। सु॒भगे॒ इति॑ सु॒ऽभगे॑। मिथु॒ऽदृशा॑। उ॒षसा॒नक्ता॑। जग॑ताम्। अ॒पि॒ऽजुवा॑। स्तु॒षे। यत्। वा॒म्। पृ॒थि॒वि॒। नव्य॑सा। वचः॑। स्था॒तुः। च॒। वयः॑। त्रिऽव॑याः। उ॒प॒ऽस्तिरे॑॥

ऋग्वेद » मण्डल:2» सूक्त:31» मन्त्र:5 | अष्टक:2» अध्याय:7» वर्ग:14» मन्त्र:5 | मण्डल:2» अनुवाक:3» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर स्त्रीपुरुष के कर्त्तव्य विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (पृथिवि) पृथिवी के तुल्य वर्त्तमान सहनशील स्त्री (त्रिवयाः) तीनों अवस्था भोगनेवाली तू जैसे (त्ये) वे (मिथूदृशा) आपस में एक-दूसरे को देखनेवाले (सुभगे) सुन्दर ऐश्वर्य के निमित्त (देवी) प्रकाशमान (अपीजुवा) प्रेरक (उषसानक्ता) दिन-रात (जगताम्) संसारस्थ मनुष्यादि (च) और (स्थातुः) स्थावर वृक्षादि के पालक होते हैं (उत) और जैसे मैं (नव्यसा) नवीन (वचः) वचन से (वयः) अभीष्ट अवस्था को (यत्) जिनकी (स्तुषे) स्तुति करता हूँ और (उपस्तिरे) निकट आच्छादित रक्षित करता हूँ वैसे ही (वाम्) उनकी स्तुति कर ॥५॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे रात-दिन परस्पर मिले हुए वर्त्तते हैं, वैसे ही स्त्री-पुरुष वर्त्तें। जैसे पुरुष ब्रह्मचर्य से विद्या पढ़ के सब पदार्थों के गुण-कर्म-स्वभावों को जानकर विद्वान् होते हैं, वैसे ही स्त्रियाँ भी हों ॥५॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स्त्रीपुरुषकर्त्तव्यविषयमाह।

अन्वय:

हे पृथिविवद्वर्त्तमाने त्रिवयास्त्वं यथा त्ये मिथूदृशा सुभगे देवी अपीजुवोषसानक्ता जगतां स्थातुश्च पालकौ उतापि यथाऽहं नव्यसा वचो वयो यद्ये स्तुष उपस्तिरे तथैव वां ते चोपस्तुहि ॥५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (उत) अपि (त्वे) ते (देवी) देदीप्यमाने (सुभगे) शोभनैश्वर्यनिमित्ते (मिथूदृशा) परस्परदर्शयितारौ। अत्र संहितायामिति दीर्घः (उषासानक्ता) प्रत्यूषरात्र्यौ। अत्रान्येषामपीति दीर्घः (जगताम्) मनुष्यादिसंसारस्थानाम् (अपीजुवा) प्रेरके (स्तुषे) (यत्) ये (वाम्) ते (पृथिवि) भूमिवद्वर्त्तमाने सुलुगिति टालोपः (स्थातुः) स्थावरस्य (च) (वयः) कमनीयम् (त्रिवयाः) त्रीणि वयांसि यस्य सः (उपस्तिरे) उपस्तृणोमि। अत्र वाच्छन्दसीति रेफादेशः ॥५॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा रात्रिदिवसौ परस्परं संहतौ वर्त्तेते तथैव स्त्रीपुरुषौ वर्त्तेयाताम्। यथा पुरुषा ब्रह्मचर्य्येण विद्यामधीत्य सर्वेषां पदार्थानां गुणकर्मस्वभावान् विज्ञाय विद्वांसो जायन्ते तथैव स्त्रियोऽपि स्युः ॥५॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे रात्र व दिवस परस्पर सहकार्याने वागतात तसे स्त्री-पुरुषांनी वागावे. जसे पुरुष ब्रह्मचर्य पाळून विद्या शिकून सर्व पदार्थांचे गुण, कर्म, स्वभाव जाणून विद्वान होतात तसे स्त्रियांनीही व्हावे. ॥ ५ ॥