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यो नः॒ सनु॑त्य उ॒त वा॑ जिघ॒त्नुर॑भि॒ख्याय॒ तं ति॑गि॒तेन॑ विध्य। बृह॑स्पत॒ आयु॑धैर्जेषि॒ शत्रू॑न्द्रु॒हे रीष॑न्तं॒ परि॑ धेहि राजन्॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yo naḥ sanutya uta vā jighatnur abhikhyāya taṁ tigitena vidhya | bṛhaspata āyudhair jeṣi śatrūn druhe rīṣantam pari dhehi rājan ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यः। नः॒। सनु॑त्य। उ॒त। वा॒। जि॒घ॒त्नुः। अ॒भि॒ऽख्याय॑। तम्। ति॒गि॒तेन॑। वि॒ध्य॒। बृह॑स्पते। आयु॑धैः। जे॒षि॒। शत्रू॑न्। द्रु॒हे। रिष॑न्तम्। परि॑। धे॒हि॒। रा॒ज॒न्॥

ऋग्वेद » मण्डल:2» सूक्त:30» मन्त्र:9 | अष्टक:2» अध्याय:7» वर्ग:13» मन्त्र:4 | मण्डल:2» अनुवाक:3» मन्त्र:9


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (राजन्) प्रकाशमान राजन्! आप (यः) जो (नः) हमारा (सनुत्यः) नम्रादि गुणयुक्त जनों में रहनेवाला (उत,वा) अथवा (जिघत्नुः) मारने की इच्छा करनेवाला है (तम्) उसको (अभिख्याय) सब ओर से प्रकट कर (तिगितेन) प्राप्त हुए शस्त्र से (विध्य) ताड़ना दीजिये, हे (बृहस्पते) बड़े-बड़े विषय के रक्षक जिस कारण आप (आयुधैः) शस्त्र-अस्त्रों से (शत्रून्) शत्रुओं को (जेषि) जीतते हो और (रीषन्तम्) मारते हुए को जीतते हो इससे उनको (द्रुहे) द्रोहकर्त्ता के लिये (परि,धेहि) सब ओर से धारण कीजिये ॥९॥
भावार्थभाषाः - प्रजापुरुषों को चाहिये कि अपने दुःखों को राजपुरुषों से निवेदन कर निवृत्त करावें, जो प्रजा की रक्षा में प्रीति से वर्त्तमान हैं, उनको सुख दिलावें और जो हिंसक हैं, उनका निवेदन कर दण्ड दिलावें ॥९॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे राजन् यो नः सनुत्य उत वा जिघत्नुर्वर्त्तर्त तमभिख्याय तिगितेन विध्य। बृहस्पते यतस्त्वमायुधैश्शत्रून् रीषन्तं च जेषि तस्मात्तान् द्रुहे परि धेहि ॥९॥

पदार्थान्वयभाषाः - (यः) (नः) अस्माकम् (सनुत्यः) सनुतेषु नम्रादिगुणैः सह वर्त्तमानेषु भवः (उत) अपि (वा) (जिघत्नुः) हन्तुमिच्छुः (अभिख्याय) अभितः सर्वतः संख्याय (तम्) (तिगितेन) प्राप्तेन (विध्य) ताडय (बृहस्पते) बृहतः पालक (आयुधैः) शस्त्रास्त्रैः (जेषि) जयसि (शत्रून्) (द्रुहे) द्रोग्ध्रे (रीषन्तम्) हिंसन्तम्। अत्राऽन्येषामपीति दीर्घः (परि) सर्वतः (धेहि) (राजन्) प्रकाशमान ॥९॥
भावार्थभाषाः - प्रजास्थैर्जनैः स्वदुःखानि राजपुरुषेभ्यो निवेद्य निवारणीयानि ये प्रजारक्षायां प्रीत्या प्रवर्त्तन्ते ते सुखनीया ये हिंसकाः सन्ति ते निवेद्य दण्डनीयाः ॥९॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - प्रजेने आपले दुःख राजपुरुषांना निवेदन करून नाहीसे करावे. जे प्रजेचे रक्षण करतात त्यांना सुख देववावे व जे हिंसक असतात त्यांना दंड देववावा. ॥ ९ ॥