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यो वृ॒त्राय॒ सिन॒मत्राभ॑रिष्य॒त्प्र तं जनि॑त्री वि॒दुष॑ उवाच। प॒थो रद॑न्ती॒रनु॒ जोष॑मस्मै दि॒वेदि॑वे॒ धुन॑यो य॒न्त्यर्थ॑म्॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yo vṛtrāya sinam atrābhariṣyat pra taṁ janitrī viduṣa uvāca | patho radantīr anu joṣam asmai dive-dive dhunayo yanty artham ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यः। वृ॒त्राय॑। सिन॑म्। अत्र॑। अभ॑रिष्यत्। प्र। तम्। जनि॑त्री। वि॒दुषे॑। उ॒वा॒च॒। प॒थः। रद॑न्तीः। अनु॑। जोष॑म्। अ॒स्मै॒। दि॒वेऽदि॑वे। धुन॑यः। य॒न्ति॒। अर्थ॑म्॥

ऋग्वेद » मण्डल:2» सूक्त:30» मन्त्र:2 | अष्टक:2» अध्याय:7» वर्ग:12» मन्त्र:2 | मण्डल:2» अनुवाक:3» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर सूर्य्यमण्डल के कृत्य विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - (यः) जो सूर्य (अत्र) इस जगत् में (वृत्राय) घाम आदि के आवरणकर्त्ता मेघ के लिये (सिनम्) बन्धन को (अभरिष्यत्) धारण करता (तम्) उसको (जनित्री) माता (विदुषे) विद्यावान् सन्तान के लिये (प्र,उवाच) कहती उपदेश करती हैं, इस सूर्य्यविषयक (रदन्तीः) भूमियों को प्राप्त होती हुई (धुनयः) किरणों की चालें (दिवेदिवे) नित्य प्रति (अर्थम्) पदार्थमात्र को (यन्ति) प्राप्त होतीं (पथः) मार्ग से (अनु,जोषम्) अनुकूल प्रीति को उत्पन्न करातीं हैं, उनके कृत्य को विद्वान् पुत्र के लिये पिता भी उपदेश करे ॥२॥
भावार्थभाषाः - जैसे सूर्य्य मेघ का बन्धनकर्त्ता है, वैसे ही पृथिवी आदि लोकों का भी है, जैसे सूर्य्यमण्डल प्रतिदिन रसों को खींच कर नियत समय पर वर्षाता है, वैसे इस सूर्य्य के किरण भी प्रत्येक द्रव्य को प्राप्त होते हैं ॥२॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः सूर्य्यमण्डलकृत्यविषयमाह।

अन्वय:

यः सूर्य्योऽत्र वृत्राय सिनमभरिष्यत्तं जनित्री विदुषेऽपत्याय प्रोवाच। अत्र रदन्तीर्धुनयो दिवेदिवेऽर्थं यन्ति पथोऽनु जोषमुत्पादयन्ति तासां कृत्यं विदुषे पितापि प्रोवाच ॥२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (यः) सूर्य्यः (वृत्राय) आवरकाय मेघाय (सिनम्) बन्धनम् (अत्र) (अभरिष्यत्) भरति (प्र) (तम्) (जनित्री) माता (विदुषे) विद्यावते (उवाच) वक्ति (पथः) मार्गात् (रदन्तीः) भूमिं विलिखन्त्यः (अनु) (जोषम्) प्रीतिम् (अस्मै) (दिवेदिवे) प्रतिदिनम् (धुनयः) रश्मिगतयः (यन्ति) (अर्थम्) द्रव्यम् ॥२॥
भावार्थभाषाः - यथा सूर्य्यो मेघस्य बन्धनकर्त्ताऽस्ति तथा भूम्यादेर्लोकानामपि यथा प्रत्यहं सूर्य्यो रसानाकृष्य नियतसमये वर्षयति तथैवास्य किरणाः प्रति द्रव्यं प्राप्नुवन्ति ॥२॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जसा सूर्य मेघांना बंदिस्त करतो तसा पृथ्वी इत्यादी गोलांनाही करतो. जसे सूर्यमंडल नियमित रस ओढून योग्य वेळी वृष्टी करते, तशी सूर्याची किरणेही प्रत्येक पदार्थावर पडतात. ॥ २ ॥