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तं वः॒ शर्धं॒ मारु॑तं सुम्न॒युर्गि॒रोप॑ ब्रुवे॒ नम॑सा॒ दैव्यं॒ जन॑म्। यथा॑ र॒यिं सर्व॑वीरं॒ नशा॑महा अपत्य॒साचं॒ श्रुत्यं॑ दि॒वेदि॑वे॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

taṁ vaḥ śardham mārutaṁ sumnayur giropa bruve namasā daivyaṁ janam | yathā rayiṁ sarvavīraṁ naśāmahā apatyasācaṁ śrutyaṁ dive-dive ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

तम्। वः॒। शर्ध॑म्। मारु॑तम्। सु॒म्न॒ऽयुः। गि॒रा। उप॑। ब्रु॒वे॒। नम॑सा। दैव्य॑म्। जन॑म्। यथा॑। र॒यिम्। सर्व॑ऽवीरम्। नशा॑महै। अ॒प॒त्य॒ऽसाच॑म्। श्रुत्य॑म्। दि॒वेऽदि॑वे॥

ऋग्वेद » मण्डल:2» सूक्त:30» मन्त्र:11 | अष्टक:2» अध्याय:7» वर्ग:13» मन्त्र:6 | मण्डल:2» अनुवाक:3» मन्त्र:11


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो! (यथा) जैसे (सुम्नयुः) अपने को धन की इच्छा करनेवाला मैं (नमसा) सत्काररूप (गिरा) वाणी से (वः) तुम्हारे (तम्) उस (मारुतम्) वायुओं के सम्बन्धी (शर्द्धम्) बलको (दिवेदिवे) प्रतिदिन (दैव्यम्) विद्वानों में प्रसिद्ध हुए (जनम्) जन के प्रति (उप,ब्रुवे) उपदेश करूँ वैसे तुम लोग हमारे बल को सबके प्रति कहा करो, जैसे हम लोग (श्रुत्यम्) सुनने में प्रकट (अपत्यसाचम्) उत्तम सन्तानयुक्त (सर्ववीरम्) जिससे सब वीर पुरुष हों ऐसे (रयिम्) धन को प्राप्त होके पूर्ण अवस्था को भोगके (नशामहै) शरीर छोड़ें, वैसे तुम लोग भी होओ ॥११॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे राजपुरुष प्रजा के गुणों को अपने लोगों के प्रति कहें वैसे प्रजा पुरुष राजपुरुषों के गुणों को अपने सब योगियों से कहें, ऐसे परस्पर गुणज्ञानपूर्वक प्रीति को प्राप्त होके नित्य आनन्दित होवें ॥११॥ इस सूक्त में स्त्री-पुरुष और राज प्रजा के गुणों क वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ संगति है, यह जानना चाहिये ॥ यह तीसवाँ सूक्त और तेरहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे मनुष्या यथा सुम्नयुरहं नमसा गिरा वस्तं मारुतं शर्द्धं दिवेदिवे दैव्यं जनं प्रत्युप ब्रुबे तथा यूयमस्माकं बलं सर्वान् प्रत्युपब्रूत यथा वयं श्रुत्यमपत्यसाचं सर्ववीरं रयिं प्राप्य पूर्णमायुर्भुक्त्वा नशामहै तथा यूयमपि भवत ॥११॥

पदार्थान्वयभाषाः - (तम्) (वः) युष्माकम् (शर्द्धम्) बलम् (मारुतम्) मरुतामिदम् (सुम्नयुः) य आत्मनः सुम्नमिच्छति (गिरा) वाण्या (उप) (ब्रुवे) (नमसा) सत्कारेण (दैव्यम्) देवेषु विद्वत्सु भवम् (जनम्) प्रसिद्धम् (यथा) (रयिम्) धनम् (सर्ववीरम्) सर्वे वीरा यस्मात्तम् (नशामहै) अदृष्टा भवेम (अपत्यसाचम्) उत्तमापत्यसंयुक्तम् (श्रुत्यम्) श्रुतिषु श्रवणेषु भवम् (दिवेदिवे) प्रतिदिनम् ॥११॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। यथा राजपुरुषाः प्रजागुणान् स्वकीयान् प्रति ब्रूयुस्तथा प्रजाजना राजपुरुषगुणान् स्वकीयान् प्रत्युपदिशेयुरेवं परस्परेषां गुणज्ञानपुरःसरं प्रीतिं प्राप्य नित्यमन्योन्यमानन्दयेयुरिति ॥११॥ अत्र स्त्रीपुरुषराजप्रजागुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेद्यम्॥ इति त्रिंशत्तमं सूक्तं त्रयोदशो वर्गश्च समाप्तः ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसा राजपुरुष प्रजेचे गुण स्वकीयांसमोर सांगतो, तसे प्रजेने राजपुरुषाचे गुण आपल्या सहयोग्यांना सांगावे. असे परस्पर गुण जाणून प्रेम प्राप्ती करून आनंदी राहावे. ॥ ११ ॥