वांछित मन्त्र चुनें

नरा॒शंसः॒ प्रति॒ धामा॑न्य॒ञ्जन् ति॒स्रो दिवः॒ प्रति॑ म॒ह्ना स्व॒र्चिः। घृ॒त॒प्रुषा॒ मन॑सा ह॒व्यमु॒न्दन्मू॒र्धन्य॒ज्ञस्य॒ सम॑नक्तु दे॒वान्॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

narāśaṁsaḥ prati dhāmāny añjan tisro divaḥ prati mahnā svarciḥ | ghṛtapruṣā manasā havyam undan mūrdhan yajñasya sam anaktu devān ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

नरा॒शंसः॑। प्रति॑। धामा॑नि। अ॒ञ्जन्। ति॒स्रः। दिवः॑। प्रति॑। म॒ह्ना। सु॒ऽअ॒र्चिः। घृ॒त॒ऽप्रुषा॑। मन॑सा। ह॒व्यम्। उ॒न्दन्। मू॒र्धन्। य॒ज्ञस्य॑। सम्। अ॒न॒क्तु॒। दे॒वान्॥

ऋग्वेद » मण्डल:2» सूक्त:3» मन्त्र:2 | अष्टक:2» अध्याय:5» वर्ग:22» मन्त्र:2 | मण्डल:2» अनुवाक:1» मन्त्र:2


बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब अग्नि के दृष्टान्त से विद्वानों के विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वान् ! आप जैसे (नराशंसः) मनुष्यों को प्रशंसा करने योग्य (धामानि) स्थानों को (प्रत्यञ्जन्) प्रकट करता हुआ (स्वर्चिः) प्रशंसित दीप्तिवाला अग्नि (मह्ना) अपने बड़प्पन से (तिस्रः) गार्हपत्य आहवनीय दाक्षिणात्य से तीन (दिवः) दीप्तियों को तथा (हव्यम्) भक्षण करने योग्य पदार्थ (प्रत्युन्दन्) आर्द्रपन से प्रतिकूल करता हुआ (यज्ञस्य) यज्ञ के (मूर्द्धन्) उत्तम अङ्ग में (घृतप्रुषा) तेज से परिपूर्ण प्रचण्ड वा (मनसा) अपने गुणों का जो विज्ञान उससे (देवान्) दिव्य गुण वा विद्वानों को अच्छे प्रकार प्रकट है वैसे (समनक्तु) प्रकट कीजिये ॥२॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे अग्नि बिजुली प्रसिद्ध और सूर्य रूप से सब व्यवहारों को पूर्ण करता है, वैसे विद्वान् जन विद्या धर्म और सुन्दर शील आदि की प्राप्ति से समस्त आशा जो मनुष्यों की उनको पूर्ण करें ॥२॥
बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथाऽग्निदृष्टान्तेन विद्वद्विषयमाह।

अन्वय:

हे विद्वन्भवान् यथा नराशंसो धामानि प्रत्यञ्जन् स्वर्चिरग्निर्मह्ना तिस्रो दिवो हव्यं प्रत्युन्दन् यज्ञस्य मूर्द्धन् घृतप्रुषा मनसा देवान् समनक्ति तथा समनक्तु ॥२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (नराशंसः) नरैराशंसनीयः (प्रति) (धामानि) स्थानानि (अञ्जन्) प्रकटीकुर्वन् (तिस्रः) गार्हपत्याहवनीयदाक्षिणात्यरूपास्त्रिविधाः (दिवः) दीप्तीः (प्रति) (मह्ना) महत्त्वेन (स्वर्चिः) प्रशंसितदीप्तिः (घृतप्रुषा) घृतेन तेजसा परिपूर्णस्तेन (मनसा) विज्ञानेन (हव्यम्) अत्तुमर्हम् (उन्दन्) आर्द्रीकुर्वन् (मूर्द्धन्) उत्तमाङ्गे (यज्ञस्य) सङ्गतस्य जगतो मध्ये (सम्) (अनक्तु) (देवान्) दिव्यान् गुणान् विदुषो वा ॥२॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथाऽग्निर्विद्युत्प्रसिद्धसूर्यरूपत्रयेण सर्वान् व्यवहारान्पिपूर्त्ति तथा विद्वांसः विद्याधर्मसुशीलादिप्रापणेन सर्वा आशा जनानां प्रपूरयन्तु ॥२॥
बार पढ़ा गया

माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे अग्नी, विद्युत, सूर्य हे तिन्ही सर्व व्यवहार पूर्ण करतात तसे विद्वानांनी विद्या, धर्म व सुंदर शील इत्यादींची प्राप्ती करून माणसांच्या सर्व आशा पूर्ण कराव्यात. ॥ २ ॥