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घृ॒तं मि॑मिक्षे घृ॒तम॑स्य॒ योनि॑र्घृ॒ते श्रि॒तो घृ॒तम्व॑स्य॒ धाम॑। अ॒नु॒ष्व॒धमा व॑ह मा॒दय॑स्व॒ स्वाहा॑कृतं वृषभ वक्षि ह॒व्यम्॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ghṛtam mimikṣe ghṛtam asya yonir ghṛte śrito ghṛtam v asya dhāma | anuṣvadham ā vaha mādayasva svāhākṛtaṁ vṛṣabha vakṣi havyam ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

घृ॒तम्। मि॒मि॒क्षे॒। घृ॒तम्। अ॒स्य॒। योनिः॑। घृ॒ते। श्रि॒तः। घृ॒तम्। ऊँ॒ इति॑। अ॒स्य॒। धाम॑। अ॒नु॒ऽस्व॒धम्। आ। व॒ह॒। मा॒दय॑स्व। स्वाहा॑ऽकृतम्। वृ॒ष॒भ॒। व॒क्षि॒। ह॒व्यम्॥

ऋग्वेद » मण्डल:2» सूक्त:3» मन्त्र:11 | अष्टक:2» अध्याय:5» वर्ग:23» मन्त्र:6 | मण्डल:2» अनुवाक:1» मन्त्र:11


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (वृषभ) श्रेष्ठजन ! जो आप (स्वाहाकृतम्) उत्तम क्रिया से उत्पन्न किये हुए (हव्यम्) ग्रहण करने के योग्य पदार्थ को (वक्षि) प्राप्त करते हो सो आप (अनुष्वधम्) अन्न के अनुकूल व्यञ्जन द्रव्य को (आवह) सब प्रकार से प्राप्त कीजिये। जैसे मैं (घृतम्) घी को (मिमिक्षे) सींचने की इच्छा करता हूँ वैसे आप सींचने की इच्छा करो। जैसे (अस्य) इस अग्नि का (घृतम्) प्रदीप्त होने का घृत (योनिः) कारण है, (घृते) घी में (श्रितः) सेवन किया जाता (घृतम्) तेज (उ) ही (अस्य) इस अग्नि का (धाम) आधार है, वैसे उससे आप (मादयस्व) आनन्दित हूजिये ॥११॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो मनुष्य यज्ञ में अग्नि जैसे वैसे उपकार करनेवाले परोपकार का आश्रय किये हुए औरों को सुखी करते हैं, वैसे आप भी उनसे उपकार को प्राप्त और आनन्दित होते हैं ॥११॥ इस सूक्त में अग्नि विद्वान् और स्त्रीपुरुषों के आचरण का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्तार्थ के साथ सङ्गति है, यह जानना चाहिये ॥ यह दूसरे मण्डल में तीसरा सूक्त और तेईसवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे वृषभ यस्त्वं स्वाहाकृतं हव्यं वक्षि स त्वं मनुष्वधमा वह। यथाऽहं घृतं मिमिक्षे तथा त्वं सेक्तुमिच्छ यथाऽस्याग्नेर्घृतं घृतमु योनिर्घृते श्रितो अस्य धामाऽस्ति तथा तेन त्वं मादयस्व ॥११॥

पदार्थान्वयभाषाः - (घृतम्) आज्यम् (मिमिक्षे) मेढुं सेक्तुमिच्छेयम् (घृतम्) संदीप्तं तेजः (अस्य) अग्नेः (योनिः) कारणम् (घृते) आज्ये (श्रितः) सेवितः (घृतम्) तेजः (उ) (अस्य) (धाम) अधिकरणम् (अनुष्वधम्) स्वधामनुगतं द्रव्यम् (आ) (वह) समन्तात् प्राप्नुहि (मादयस्व) आनन्दयस्व (स्वाहाकृतम्) सत्क्रियया निष्पादितम् (वृषभ) श्रेष्ठ (वक्षि) (हव्यम्) ग्रहीतुमर्हम् ॥११॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये मनुष्या यज्ञेऽग्निरिवोपकारकाः परोपकारमाश्रित्य अन्यान् सुखयन्ति तथा स्वयमपि तैरूपकृता आनन्दिताश्च भवन्ति ॥११॥। अस्मिन् सूक्तेऽग्निविद्वत्स्त्रीपुरुषाचरणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेदितव्यम् ॥ इति द्वितीयमण्डले तृतीयं सूक्तं त्रयोविंशो वर्गश्च समाप्तः ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जी माणसे यज्ञातील अग्नीप्रमाणे उपकार करून, परोपकाराच्या आश्रयाने इतरांना सुखी करतात तसे स्वतःही उपकृत होऊन आनंदित होतात. ॥ ११ ॥