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ह॒ये दे॑वा यू॒यमिदा॒पयः॑ स्थ॒ ते मृ॑ळत॒ नाध॑मानाय॒ मह्य॑म्। मा वो॒ रथो॑ मध्यम॒वाळृ॒ते भू॒न्मा यु॒ष्माव॑त्स्वा॒पिषु॑ श्रमिष्म॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

haye devā yūyam id āpayaḥ stha te mṛḻata nādhamānāya mahyam | mā vo ratho madhyamavāḻ ṛte bhūn mā yuṣmāvatsv āpiṣu śramiṣma ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ह॒ये। दे॒वाः॒। यू॒यम्। इत्। आ॒पयः॑। स्थ॒। ते। मृ॒ळ॒त॒। नाध॑मानाय। मह्य॑म्। मा। वः॒। रथः॑। म॒ध्य॒म॒ऽवाट्। ऋ॒ते। भू॒त्। मा। यु॒ष्माव॑त्ऽसु। आ॒पिषु॑। श्र॒मि॒ष्म॒॥

ऋग्वेद » मण्डल:2» सूक्त:29» मन्त्र:4 | अष्टक:2» अध्याय:7» वर्ग:11» मन्त्र:4 | मण्डल:2» अनुवाक:3» मन्त्र:4


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - (हये) हे (देवाः) विद्वानो जो (यूयम्) तुम लोग (इत्) ही (आपयः) सकलशुभगुणव्यापि (स्थ) होओ (ते) वे (नाधमानाय) माँगते हुए (मह्यम्) मेरे लिये (मृळत) सुखी करो जो (वः) तुम्हारा (मध्यमवाट्) पृथिवी के पदार्थों को इधर-उधर पहुँचानेवाला (रथः) विमान आदि यान (ते) जलरूप समुद्रादि में चलाता है, वह नष्ट (मा,भूत्) न हो। ऐसे (युष्मावत्सु) तुम्हारे सदृश (आपिषु) विद्यादि गुणों से व्याप्त सज्जनों में विद्या प्राप्ति के अर्थ हम लोग (श्रमिष्म) परिश्रम करें । यह हमारा श्रम नष्ट (मा) न होवे ॥४॥
भावार्थभाषाः - सब मनुष्यों को योग्य है कि विद्याओं को प्राप्त होके सबको सुखी करें और जैसे दृढ़ पुष्ट यान बनें, वैसा प्रयत्न करें, सदा विद्वानों में प्रीति रखके विद्या की उन्नति किया करें ॥४॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हये देवा ये यूयमिदापयः स्थ ते नाधमाना मह्यं मृळत यो वो मह्यमवाड्रथ ते जले गमयति स नष्टो मा भूदीदृशेषु युष्मावत्स्वापिषु विद्याप्राप्तये वयं श्रमिष्म अयं च श्रमो नष्टो माभूत् ॥४॥

पदार्थान्वयभाषाः - (हये) सम्बोधने (देवाः) विद्वांसः (यूयम्) (इत्) एव (आपयः) सकलशुभगुणव्यापिनः (स्थ) भवत (ते) (मृळत) सुखयत (नाधमानाय) याचमानाय (मह्यम्) (मा) (वः) युष्माकम् (रथः) रमणीयं यानम् (मध्यमवाट्) यो मध्ये पृथिव्यां भवान् पदार्थान् वहति सः (ते) उदकमये समुद्रादौ। तमित्युदकना० निघं० १। १२ (भूत्) भवेत् (मा) (युष्मावत्सु) युष्मत्सदृशेषु (आपिषु) विद्यादिगुणैर्व्याप्तेषु (श्रमिष्म) श्रमं कुर्याम। अत्राडभावः ॥४॥
भावार्थभाषाः - सर्वैर्मनुष्यैर्विद्याः प्राप्य सर्वे सुखयितव्याः। यथा दृढानि यानानि स्युस्तथा प्रयतितव्यं सदैव विद्वत्सु प्रीतिं विधाय विद्योन्नतिः कार्या ॥४॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - सर्व माणसांनी विद्या प्राप्त करून सर्वांना सुखी करावे व मजबूत याने तयार होतील असा प्रयत्न करावा. सदैव विद्वानांवर प्रेम करून विद्येची उन्नती करावी. ॥ ४ ॥