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ति॒स्रो भूमी॑र्धारय॒न् त्रीँरु॒त द्यून्त्रीणि॑ व्र॒ता वि॒दथे॑ अ॒न्तरे॑षाम्। ऋ॒तेना॑दित्या॒ महि॑ वो महि॒त्वं तद॑र्यमन्वरुण मित्र॒ चारु॑॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tisro bhūmīr dhārayan trīm̐r uta dyūn trīṇi vratā vidathe antar eṣām | ṛtenādityā mahi vo mahitvaṁ tad aryaman varuṇa mitra cāru ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ति॒स्रः। भूमीः॑। धा॒र॒य॒न्। त्रीन्। उ॒त। द्यून्। त्रीणि॑। व्र॒ता। वि॒दथे॑। अ॒न्तः। ए॒षा॒म्। ऋ॒तेन॑। आ॒दि॒त्याः॒। महि॑। वः॒। म॒हि॒ऽत्वम्। तत्। अ॒र्य॒म॒न्। व॒रु॒ण॒। मि॒त्र॒। चारु॑॥

ऋग्वेद » मण्डल:2» सूक्त:27» मन्त्र:8 | अष्टक:2» अध्याय:7» वर्ग:7» मन्त्र:3 | मण्डल:2» अनुवाक:3» मन्त्र:8


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्य किसके तुल्य क्या करे, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अर्य्यमन्) न्याय करनेहारे (वरुण) शान्तशील (मित्र) मित्रजन जैसे (तेन) सत्यस्वरूप परमेश्वर ने धारण किये (आदित्याः) सूर्यलोक (तिस्रः) तीन प्रकार की (भूमीः) भूमियों को (उत) और (त्रीन्) तीन प्रकार के (द्यून्) प्रकाशों को (धारयन्) धारण करते हैं वैसे आप (विदथे) जानने योग्य व्यवहार में (व्रता) शरीर आत्मा और मन से उत्पन्न हुए धर्मयुक्त (त्री) तीन प्रकार के कर्मों को धारण करो कराओ जो (एषाम्) इन सूर्य लोकों के (अन्तः) मध्य में (महित्वम्) महत्त्व (चारु) सुन्दर स्वरूप वा (महि) बड़ा कर्म है (तत्) वह (वः) आप लोगों का होवे ॥८॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो जैसे भूमि और सूर्य्यादि लोक ईश्वर के नियम से बंधे हुए यथावत् अपनी-अपनी क्रिया करते हैं, वैसे मनुष्यों को भी जानना और वर्त्ताव करना चाहिये। इस जगत् में उत्तम मध्यम और अधम तीन प्रकार की भूमि और अग्नि है तथा सूर्य्यलोक भूमिलोक से बड़े-बड़े हैं ॥८॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्मनुष्याः किंवत् किं कुर्युरित्याह।

अन्वय:

हे अर्य्यमन् वरुण मित्र यथा तेन धृता आदित्यास्तिस्रो भूमीरुत त्रीन् द्यून् धारयँस्तथा त्वं विदथे त्रीणि व्रता धर धारय च। यदेषामन्तर्महित्वं चारु स्वरूपं महि कर्म वा वर्त्तते तद्वोऽस्तु ॥८॥

पदार्थान्वयभाषाः - (तिस्रः) त्रिविधाः (भूमीः) (धारयन्) (धरन्ति) अत्राडभावः (त्रीन्) (उत) अपि (द्यून्) प्रकाशान् (त्रीणि) (व्रता) व्रतानि शरीरात्ममनोजानि धर्म्याणि कर्माणि (विदथे) वेदितव्ये व्यवहारे (अन्तः) मध्ये (एषाम्) लोकानाम् (तेन) सत्यस्वरूपेण ब्रह्मणा (अदित्याः) सूर्य्याः (महि) महत् (वः) युष्माकम् (महित्वम्) महत्त्वम् (तत्) (अर्यमन्) (वरुण) (मित्र) (चारु) ॥८॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्याः यथा भूमयः सूर्य्यादयो लोकाश्चेश्वरनियमेन नियन्त्रिता यथावत्स्वस्वक्रियाः कुर्वन्ति तथा मनुष्यैरपि विज्ञेयं वर्त्तितव्यं च। अस्मिन् जगत्युत्तममध्यमनिकृष्टभेदेन भूमिरग्निश्च त्रिविधोऽस्ति सूर्य्यलोकाः भूमिलोकतो महान्तः सन्तीति ॥८॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - भावार्थ -या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो! जशी भूमी व सूर्य इत्यादी ईश्वराच्या नियमाने बंधित असून आपले कार्य यथायोग्य करतात, तसे माणसांनीही जाणावे, वागावे. या जगात उत्तम, मध्यम व अधम तीन प्रकारची भूमी व अग्नी आहेत व सूर्यलोक भूमीलोकाहून मोठमोठे आहेत. ॥ ८ ॥