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पिप॑र्तु नो॒ अदि॑ती॒ राज॑पु॒त्राति॒ द्वेषां॑स्यर्य॒मा सु॒गेभिः॑। बृ॒हन्मि॒त्रस्य॒ वरु॑णस्य॒ शर्मोप॑ स्याम पुरु॒वीरा॒ अरि॑ष्टाः॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

pipartu no aditī rājaputrāti dveṣāṁsy aryamā sugebhiḥ | bṛhan mitrasya varuṇasya śarmopa syāma puruvīrā ariṣṭāḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

पिप॑र्तु। नः॒। अदि॑तिः। राज॑ऽपु॒त्रा। अति॑। द्वेषां॑सि। अ॒र्य॒मा। सु॒ऽगेभिः॑। बृ॒हत्। मि॒त्रस्य॑। वरु॑णस्य। शर्म॑। उप॑। स्या॒म॒। पु॒रु॒ऽवीराः॑। अरि॑ष्टाः॥

ऋग्वेद » मण्डल:2» सूक्त:27» मन्त्र:7 | अष्टक:2» अध्याय:7» वर्ग:7» मन्त्र:2 | मण्डल:2» अनुवाक:3» मन्त्र:7


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब न्यायाधीश का विषय अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - जो (राजपुत्रा) जिसका पुत्र राजा हो ऐसी (अदितिः) माता के तुल्य सुख देनेवाली राज्ञी और जो (अर्यमा) विद्वानों से प्रीति रखनेवाला राजा (सुगेभिः) सुगम मार्गों से (द्वेषांसि,अति) वैर द्वेषों को अच्छे प्रकार छुड़ाके (नः) हमारा (पिपर्त्तु) पालन करे (मित्रस्य) मित्र तथा (वरुणस्य) प्रशंसायुक्त पुरुष के (बृहत्) बड़े ऐश्वर्यवाले (शर्म) घर की रक्षा करे उस राजा रानी के संग सम्बन्ध से हम लोग (अरिष्टाः) किसी से न मारने योग्य (पुरुवीराः) शरीर आत्मा के बल से युक्त बहुत पुत्र भृत्यादि जिनके हों ऐसे (उप,स्याम) आपके निकट होवें ॥७॥
भावार्थभाषाः - जैसे न्यायाधीश राजा न्यायघर में बैठ के पुरुषों को दण्ड देवे, वैसे न्यायाधीशा रानी स्त्रियों का न्याय करे। उस न्यायघर में रागद्वेष और प्रीति अप्रीति छोड़के केवल न्याय ही किया करे, अन्य कुछ न करे ॥७॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ न्यायाधीशविषयमाह।

अन्वय:

या राजपुत्रादितिर्योऽर्यमा राजा च सुगेभिरतिद्वेषांसि त्याजयित्वा नोऽस्मान् पिपर्त्तु मित्रस्य वरुणस्य बृहच्छर्म च पिपर्त्तु तत्सङ्गेन वयमरिष्टाः पुरुवीरा उपस्याम ॥७॥

पदार्थान्वयभाषाः - (पिपर्त्तु) पालयन्तु (नः) अस्मान् (अदितिः) मातेव (राजपुत्रा) राजा पुत्रो यस्याः सा (अति) (द्वेषांसि) (अर्यमा) विद्वत्प्रियः (सुगेभिः) सुगमैर्मार्गैः (बृहत्) (मित्रस्य) सख्युः (वरुणस्य) प्रशस्तस्य (शर्म) गृहम् (उप) (स्याम) (पुरुवीराः) पुरवो बहवो वीराः शरीरात्मबलाः पुरुषा येषान्ते (अरिष्टाः) न केनापि हिंसितुं योग्याः ॥७॥
भावार्थभाषाः - यथा न्यायाधीशो न्यायगृहमधिष्ठाय पुरुषाणां दण्डविनयं कुर्य्यात्तथैव राज्ञी न्यायाधीशा च स्त्रीणां न्यायं कुर्यात्तत्र रागद्वेषौ प्रीत्यप्रीती च विहाय न्यायमेव कुर्य्यात् ॥७॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जसा न्यायाधीश राजा न्यायालयात पुरुषांना दंड देतो तसे न्यायाधीश राणीने स्त्रियांचा न्याय करावा. त्यांनी न्यायालयात राग-द्वेष व प्रीती-अप्रीती सोडून केवळ न्यायच करावा. इतर काही करू नये. ॥ ७ ॥