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सु॒गो हि वो॑ अर्यमन्मित्र॒ पन्था॑ अनृक्ष॒रो व॑रुण सा॒धुरस्ति॑। तेना॑दित्या॒ अधि॑ वोचता नो॒ यच्छ॑ता नो दुष्परि॒हन्तु॒ शर्म॑॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

sugo hi vo aryaman mitra panthā anṛkṣaro varuṇa sādhur asti | tenādityā adhi vocatā no yacchatā no duṣparihantu śarma ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सु॒ऽगः। हि। वः॒। अ॒र्य॒म॒न्। मि॒त्र॒। पन्थाः॑। अ॒नृ॒क्ष॒रः। व॒रु॒ण॒। सा॒धुः। अस्ति॑। तेन॑। आ॒दि॒त्याः॒। अधि॑। वो॒च॒त॒। नः॒। यच्छ॑त। नः॒। दुः॒ऽप॒रि॒हन्तु॑। शर्म॑॥

ऋग्वेद » मण्डल:2» सूक्त:27» मन्त्र:6 | अष्टक:2» अध्याय:7» वर्ग:7» मन्त्र:1 | मण्डल:2» अनुवाक:3» मन्त्र:6


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर विद्वानों के संग में प्रीति रखनेवाले मनुष्य लोग क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (आदित्या: विद्वान् लोगो हे (अर्यमन्) श्रेष्ठ सत्कार युक्त हे (मित्र) मित्र हे (वरुण) प्रतिष्ठित सज्जन पुरुष जो (वः) तुम लोगों का (अनृक्षरः) कण्टकादि रहित (सुगः) जिसमें निर्विघ्न चल सकें (साधुः) जिसमें धर्म को सिद्ध करते ऐसा (पन्थाः) मार्ग (अस्ति) है (तेन, हि) उसी मार्ग से चलने के लिये (नः) हमको (अधि,वोचत) अधिक कर उपदेश करो और जो यह (दुष्परिहन्तु) बड़ी कठिनता से टूटे-फूटे ऐसे विद्याभ्यासादि के लिये बना हुआ (शर्म) घर है वह (नः) हमारे लिये (यच्छत) देओ ॥६॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को चाहिये कि धर्मात्मा विद्वानों के स्वभाव को ग्रहण कर वेदोक्त सत्य मार्ग में चलें, जिससे सत्यशास्त्र के पढ़ने-पढ़ाने की वृद्धि होवे, वही कर्म सदा सेवने योग्य है ॥६॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्विद्वत्सङ्गप्रिया जनाः किं कुर्य्युरित्याह।

अन्वय:

हे आदित्या हे अर्यमन् हे मित्र हे वरुण यो वोऽनृक्षरः सुगः साधुः पन्था अस्ति तेन हि नोऽधि वोचत यदिदं दुष्परिहन्तु शर्म तन्नो यच्छत ॥६॥

पदार्थान्वयभाषाः - (सुग:) सुष्ठु गच्छन्ति यस्मिन् सः (हि) किल (वः) युष्माकम् (अर्यमन्) श्रेष्ठसत्कर्त्तः (मित्र) सखे (पन्थाः) (अनृक्षरः) निष्कण्टकः (वरुण) श्रेष्ठ (साधुः) साध्नुवन्ति धर्मं यस्मिन् सः (अस्ति) (तेन) (आदित्याः) विद्वांसः (अधि) (वोचत) प्रवदत। अत्र संहितायामिति दीर्घः (नः) अस्मभ्यम् (यच्छत) ददत (नः) (दुष्परिहन्तु) दुःखेन परिहननं यस्य तद्विद्याद्यभ्यासार्थम् (शर्म) गृहम् ॥६॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यैर्धार्मिकाणां विदुषां स्वभावं गृहीत्वा वेदोक्ते सत्ये मार्गे चलनीयं येन सत्यशास्त्राध्ययनाऽध्यापनवृद्धिस्स्यात्तदेव कर्म सदा सेवनीयम् ॥६॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - माणसांनी धर्मात्मा विद्वानाच्या स्वभावाचा स्वीकार करून वेदोक्त सत्य मार्गाने चालावे. त्यामुळे सत्यशास्त्राचे अध्ययन- अध्यापन वाढेल. हेच कर्म स्वीकारण्यायोग्य आहे. ॥ ६ ॥