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या वो॑ मा॒या अ॑भि॒द्रुहे॑ यजत्राः॒ पाशा॑ आदित्या रि॒पवे॒ विचृ॑त्ताः। अ॒श्वीव॒ ताँ अति॑ येषं॒ रथे॒नारि॑ष्टा उ॒रावा शर्म॑न्त्स्याम॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yā vo māyā abhidruhe yajatrāḥ pāśā ādityā ripave vicṛttāḥ | aśvīva tām̐ ati yeṣaṁ rathenāriṣṭā urāv ā śarman syāma ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

याः। वः॒। मा॒याः। अ॒भि॒ऽद्रुहे॑। यजत्राः॑। पाशाः॑। आ॒दि॒त्याः॒। रि॒पवे॑। विऽचृ॑त्ताः। अ॒श्वीऽइ॑व। तान्। अति॑। ये॒ष॒म्। रथे॑न। अरि॑ष्टाः। उ॒रौ। आ। शर्म॑न्। स्या॒म॒॥

ऋग्वेद » मण्डल:2» सूक्त:27» मन्त्र:16 | अष्टक:2» अध्याय:7» वर्ग:8» मन्त्र:6 | मण्डल:2» अनुवाक:3» मन्त्र:16


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (यजत्राः) सत्संग करने के स्वभाववाले (आदित्याः) सूर्य के तुल्य विद्या से प्रकाशमान विद्वानो (याः) जो (वः) आप लोगों की (विचृत्ताः) विस्तृत (अरिष्टाः) किसी से खण्डित न होने योग्य (मायाः) बुद्धियाँ (अभिद्रुहे) सब ओर से द्रोह करनेवाले (रिपवे) शत्रु के लिये (पाशाः) फाँसी के तुल्य बाँधने वाली होती हैं (तान्) उन तुम लोगों के (अति) निकट प्राप्त होने को मैं (अश्वीव) घोड़ी के तुल्य (आ,येषम्) प्रयत्न करूँ और हम लोग (रथेन) रमण के साधन रथ से (उरौ) बड़े (शर्मन्) घर में सुखी (स्याम) होवें ॥१६॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो पण्डित लोग द्रोह को छोड़ के जिनके कोई शत्रु नहीं ऐसे हों, वे दुष्टों को पाशों से बाँधे और उनकी रक्षा करके सब सुखी हों ॥१६॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे यजत्रा आदित्या या वो विचृत्ता अरिष्टा माया अभिद्रुहे रिपवे पाशा इव भवन्ति तानहमतिप्राप्तुमश्वीवायेषं रथेनोरौ शर्मन् सुखिनः स्याम ॥१६॥

पदार्थान्वयभाषाः - (याः) (वः) युष्माकम् (मायाः) प्रज्ञाः (अभिद्रुहे) योऽभिद्रुह्यति तस्मै (यजत्राः) सङ्गतिकरणशीलाः (पाशाः) बन्धनानि (आदित्याः) सूर्यवद्विद्याप्रकाशाः (रिपवे) शत्रवे (विचृत्ताः) विस्तृताः (अश्वीव) यथा वडवा (तान्) (अति) अन्तिके (येषम्) प्रयतेयम् (रथेन) (अरिष्टाः) अहिंसनीयाः (उरौ) बहूनि (आ) समन्तात् (शर्मन्) गृहे (स्याम) भवेम ॥१६॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। ये प्राज्ञा द्रोहं विहायाजातशत्रवः स्युस्ते दुष्टान् पाशैर्बध्नीयुस्तद्रक्षया सर्वे सुखिनः स्युः ॥१६॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. ज्यांचे कोणी शत्रू नाहीत अशा पंडित लोकांनी द्वेष सोडून दुष्टांना पाशात बांधावे व त्यांचे रक्षण करून सर्वांनी सुखी व्हावे. ॥ १६ ॥