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वी॒रेभि॑र्वी॒रान्व॑नवद्वनुष्य॒तो गोभी॑ र॒यिं प॑प्रथ॒द्बोध॑ति॒ त्मना॑। तो॒कं च॒ तस्य॒ तन॑यं च वर्धते॒ यंयं॒ युजं॑ कृणु॒ते ब्रह्म॑ण॒स्पतिः॑॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

vīrebhir vīrān vanavad vanuṣyato gobhī rayim paprathad bodhati tmanā | tokaṁ ca tasya tanayaṁ ca vardhate yaṁ-yaṁ yujaṁ kṛṇute brahmaṇas patiḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

वी॒रेभिः॑। वी॒रान्। व॒न॒व॒त्। व॒नु॒ष्य॒तः। गोभिः॑। र॒यिम्। प॒प्र॒थ॒त्। बोध॑ति। त्मना॑। तो॒कम्। च॒। तस्य॑। तन॑यम्। च॒। व॒र्ध॒ते॒। यम्ऽय॑म्। युज॑म्। कृ॒णु॒ते। ब्रह्म॑णः। पतिः॑॥

ऋग्वेद » मण्डल:2» सूक्त:25» मन्त्र:2 | अष्टक:2» अध्याय:7» वर्ग:4» मन्त्र:2 | मण्डल:2» अनुवाक:3» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

कौन मनुष्य विद्या वृद्धि कर सकता है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - जो (ब्रह्मणः,पतिः) अन्न का रक्षक विद्वान् जन (वनुष्यतः) याचक मनुष्य के (वीरेभिः) वीर पुरुषों के साथ (वीरान्) शरीरात्म बलयुक्त को और (गोभिः) इन्द्रियों से (वनवत्) वन जङ्गल से जैसे वैसे (रयिम्) शोभा को (पप्रथत्) प्रख्यात प्रसिद्ध करता है (त्मना) अन्तःकरण से पदार्थ विज्ञान को (बोधति) जानता है (तस्य) उसका (तोकम्) छोटा बालक (च) और ऐश्वर्य (च) तथा (तनयम्) पौत्र आदि (वर्द्धते) वृद्धि को प्राप्त होता वह (यंयम्) जिस-जिसको (युजम्) शुभ गुणयुक्त (कृणुते) करता है वह-वह अपने स्वरूप से प्रख्यात होता है ॥२॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे धन की याचना करता हुआ पुरुष मन को युक्त करता वैसे पुत्रादि के पालन में चित्त देता है, जिस पदार्थ के साथ जिसके योग की योग्यता होती, उसको उसके साथ प्रतिदिन युक्त करता है, वह बहुत उत्तम मनुष्यों को प्राप्त होके विद्या की वृद्धि कर सकता है ॥२॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

को मनुष्यो विद्यां वर्द्धयितुं शक्नोति।

अन्वय:

यो ब्रह्मणस्पतिर्वनुष्यतो वीरेभिर्वीरान् गोभिर्वनवद्रयिं पप्रथत् त्मना पदार्थविज्ञानं बोधति तस्य तोकमैश्वर्य्यं तनयञ्च वर्द्धते स यंयं युजं कृणुते स स त्मना आत्मना प्रथते ॥२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (वीरेभिः) (वीरान्) शरीरात्मबलयुक्तान् (वनवत्) वनेन जङ्गलेन तुल्यम् (वनुष्यतः) याचमानस्य (गोभिः) इन्द्रियैः (रयिम्) श्रियम् (पप्रथत्) प्रख्यापयति (बोधति) विजानाति (त्मना) आत्मना अन्तःकरणेन (तोकम्) अल्पमपत्यम् (च) (तस्य) (तनयम्) पौत्रम् (च) (वर्द्धते) (यंयम्) (युजम्) युक्तम् (कृणुते) (ब्रह्मणः) अन्नस्य (पतिः) पालकः ॥२॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। यथा धनं याचमानो मनो युङ्क्ते तथा पुत्रपौत्रादिपालने चित्तं ददाति येन पदार्थेन सह यस्य पदार्थस्य योगस्य योग्यतास्ति तं प्रत्यहं करोति स बहूनुत्तमान्मनुष्यान् प्राप्य विद्यावृद्धिं कर्त्तुं शक्नोति ॥२॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसा धनाची याचना करणारा याचक मनाला युक्त करतो तसे पुत्र इत्यादींचेही मनःपूर्वक पालन करतो. ज्या पदार्थाबरोबर ज्याच्या संयोगाची क्षमता असते त्याच्याबरोबर त्याला प्रत्येक दिवशी युक्त करतो. तो अनेक उत्तम माणसांसह विद्येची वृद्धी करू शकतो. ॥ २ ॥