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अ॒भि॒नक्ष॑न्तो अ॒भि ये तमा॑न॒शुर्नि॒धिं प॑णी॒नां प॑र॒मं गुहा॑ हि॒तम्। ते वि॒द्वांसः॑ प्रति॒चक्ष्यानृ॑ता॒ पुन॒र्यत॑ उ॒ आय॒न्तदुदी॑युरा॒विश॑म्॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

abhinakṣanto abhi ye tam ānaśur nidhim paṇīnām paramaṁ guhā hitam | te vidvāṁsaḥ praticakṣyānṛtā punar yata u āyan tad ud īyur āviśam ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒भि॒ऽनक्ष॑न्तः। अ॒भि। ये। तम्। आ॒न॒शुः। नि॒धिम्। प॒णी॒नाम्। प॒र॒मम्। गुहा॑। हि॒तम्। ते। वि॒द्वांसः॑। प्र॒ति॒ऽचक्ष्य॑। अनृ॑ता। पुनः॑। यतः॑। ऊँ॒ इति॑। आय॑न्। तत्। उत्। ई॒युः। आ॒ऽविश॑म्॥

ऋग्वेद » मण्डल:2» सूक्त:24» मन्त्र:6 | अष्टक:2» अध्याय:7» वर्ग:2» मन्त्र:1 | मण्डल:2» अनुवाक:3» मन्त्र:6


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - (ये) जो (अभिनक्षन्तः) सब ओर से जानते हुए (विद्वांसः) विद्वान् लोग (तम्) उस (गुहा,हितम्) बुद्धि में स्थित (परमम्) उत्तम (पणीनाम्) व्यवहारवान् प्रशंसनीय मनुष्यों के (निधिम्) विद्यारूप कोश को (अभ्यानशुः) सब ओर से प्राप्त होते हैं (ते) वे औरों के (अनृता) मिथ्याभाषणादि कर्मों को (प्रतिचक्ष्य) प्रत्यक्ष खण्डन कर (पुनः,इ) फिर भी (आविशम्) जिसमें आदेश करते उस ज्ञान को (आयन्) प्राप्त होते (तत्) उसका (उदीयुः) उदय करें अर्थात् उपदेश करें ॥६॥
भावार्थभाषाः - जो यथार्थ विज्ञान को पाकर अधर्माचरण से पृथक् रहकर अन्यों को पापाचरण से पृथक् कर फिर-फिर धर्म विद्या शरीर आत्मा की पुष्टि में प्रवेश कराते, वे अत्यन्त आनन्द को पाकर औरों को आनन्दित करने को समर्थ होते हैं ॥६॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

येऽभिनक्षन्तो विद्वांसस्तं गुहाहितं परमं पणीनां निधिमभ्यानशुस्तेऽन्येषामनृता प्रतिचक्ष्य पुनरु यत आविशमायन् तदुदीयुरुपदिशन्तु ॥६॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अभिनक्षन्तः) अभितो जानन्तः (अभि) (ये) (तम्) (आनशुः) अश्नुवन्ति प्राप्नुवन्ति (निधिम्) विद्याकोशम् (पणीनाम्) व्यवहारनिष्ठानां प्रशंसनीयानां नॄणाम् (परमम्) उत्कृष्टम् (गुहा) बुद्धौ (हितम्) स्थितम् (ते) विद्वांसः (प्रतिचक्ष्य) प्रत्यक्षेण प्रत्याख्यानाय (अनृता) मिथ्याभाषणादिकर्माणि (पुनः) (यतः) (उ) वितर्के (आयन्) प्राप्नुवन्ति (तत्) (उत्) (ईयुः) प्राप्नुयुः (आविशम्) आविशन्ति यस्मिँस्तम् ॥६॥
भावार्थभाषाः - ये यथार्थं विज्ञानं प्राप्याधर्माचरणात्पृथग्वर्त्तित्वाऽन्यान् पापाचरणात् पृथक्कृत्य पुनः धर्मविद्याशरीरात्मपुष्टिषु प्रवेशयन्ति तेऽत्यन्तमानन्दं प्राप्याऽन्यानानन्दयितुं शक्नुवन्ति ॥६॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जे यथार्थ विज्ञान प्राप्त करून अधर्माचरणापासून पृथक राहून इतरांना पापाचरणापासून दूर करून पुन्हा पुन्हा धर्म, विद्या, शरीर, आत्म्याची पुष्टी यात प्रवेश करण्यास उद्युक्त करतात ते अत्यंत आनंद प्राप्त करून इतरांना आनंदित करण्यास समर्थ असतात. ॥ ६ ॥