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विश्वे॑भ्यो॒ हि त्वा॒ भुव॑नेभ्य॒स्परि॒ त्वष्टाज॑न॒त्साम्नः॑साम्नः क॒विः। स ऋ॑ण॒चिदृ॑ण॒या ब्रह्म॑ण॒स्पति॑र्द्रु॒हो ह॒न्ता म॒ह ऋ॒तस्य॑ ध॒र्तरि॑॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

viśvebhyo hi tvā bhuvanebhyas pari tvaṣṭājanat sāmnaḥ-sāmnaḥ kaviḥ | sa ṛṇacid ṛṇayā brahmaṇas patir druho hantā maha ṛtasya dhartari ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

विश्वे॑भ्यः। हि। त्वा॒। भुव॑नेभ्यः। परि॑। त्वष्टा॑। अज॑नत्। साम्नः॑ऽसाम्नः। क॒विः। सः। ऋ॒ण॒ऽचित्। ऋ॒ण॒ऽयाः। ब्रह्म॑णः। पतिः॑। द्रु॒हः। ह॒न्ता। म॒हः। ऋ॒तस्य॑। ध॒र्तरि॑॥

ऋग्वेद » मण्डल:2» सूक्त:23» मन्त्र:17 | अष्टक:2» अध्याय:6» वर्ग:32» मन्त्र:2 | मण्डल:2» अनुवाक:3» मन्त्र:17


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब ईश्वर विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वान् जो (साम्नःसाम्नः) सामवेद सामवेदमात्र के बीच (कविः) सर्वज्ञ (त्वष्टा) पदार्थों का निर्माण करनेवाला (विश्वेभ्यः) सभी (भुवनेभ्यः) लोकों से जिन (त्वा) आपको (पर्यजनत्) सब प्रकार प्रकट करता है (सः) वह (ब्रह्मणस्पतिः) ब्रह्माण्ड की पालना करनेवाला है उस (महः) महान् (तस्य) सत्य कारण के (धर्त्तरि) धारण करनेवाले जगदीश्वर में स्थित (णचित्) ण को इकट्ठा करने और (णयाः) णको प्राप्त होनेवाले आप (द्रुहः) द्रोह करनेवाले के (हन्ता) नाशक हूजिये ॥१७॥
भावार्थभाषाः - हे जीव जो सर्वज्ञ सृष्टिकर्त्ता सकल भुवनों का एक स्वामी और सबका धारणकरनेवाला जगदीश्वर है, उसकी आज्ञा में स्थित द्रोहादिकों को दूर से दूर करे ॥१७॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथेश्वरविषयमाह

अन्वय:

हे विद्वन् यः साम्नः साम्नः कविस्त्वष्टा विश्वेभ्यो हि भुवनेभ्योऽयं त्वा पर्यजनत्स ब्रह्मणस्पतिरस्ति तस्य मह तस्य धर्त्तरि जगदीश्वरे स्थित णचिदृणयास्त्वं द्रुहो हन्ता भव ॥१७॥

पदार्थान्वयभाषाः - (विश्वेभ्यः) सर्वेभ्यः (हि) खलु (त्वा) त्वाम् (भुवनेभ्यः) लोकेभ्यः (परि) सर्वतः (त्वष्टा) निर्माता (अजनत्) जनयति (साम्नःसाम्नः) सामवेदस्य सामवेदस्य मध्ये (कविः) सर्वज्ञः (सः) (णचित्) य णं चिनोति सः (णयाः) य णं याति प्राप्नोति सः (ब्रह्मणः) ब्रह्माण्डस्य (पतिः) पालकः (द्रुहः) द्वेष्टुः (हन्ता) नाशकः (महः) महतः (तस्य) सत्यस्य कारणस्य (धर्त्तरि) ॥१७॥
भावार्थभाषाः - हे जीव यः सर्वज्ञः सृष्टिकर्त्ता सकलभुवनैकस्वामी सर्वधर्त्ता जगदीश्वरोऽस्ति तदाऽऽज्ञायां स्थित्वा द्रोहादिकं दूरतः परिहरेत् ॥१७॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे जीवा! जो सर्वज्ञ, सृष्टिकर्ता, संपूर्ण जगाचा स्वामी, सर्वांना धारण करणारा ईश्वर आहे त्याच्या आज्ञेत राहून वैर वृत्तीला दूर करावे. ॥ १७ ॥