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तव॒ त्यन्नर्यं॑ नृ॒तोऽप॑ इन्द्र प्रथ॒मं पू॒र्व्यं दि॒वि प्र॒वाच्यं॑ कृ॒तम्। यद्दे॒वस्य॒ शव॑सा॒ प्रारि॑णा॒ असुं॑ रि॒णन्न॒पः। भुव॒द्विश्व॑म॒भ्यादे॑व॒मोज॑सा वि॒दादूर्जं॑ श॒तक्र॑तुर्वि॒दादिष॑म्॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tava tyan naryaṁ nṛto pa indra prathamam pūrvyaṁ divi pravācyaṁ kṛtam | yad devasya śavasā prāriṇā asuṁ riṇann apaḥ | bhuvad viśvam abhy ādevam ojasā vidād ūrjaṁ śatakratur vidād iṣam ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

तव॑। त्यत्। नर्य॑म्। नृ॒तो॒ इति॑। अपः॑। इ॒न्द्र॒। प्र॒थ॒मम्। पू॒र्व्यम्। दि॒वि। प्र॒ऽवाच्य॑म्। कृ॒तम्। यत्। दे॒वस्य॑। शव॑सा। प्र। अरि॑णा। असु॑म्। रि॒णन्। अ॒पः। भुव॑त्। विश्व॑म्। अ॒भि। अदे॑वम्। ओज॑सा। वि॒दात्। ऊर्ज॑म्। श॒तऽक्र॑तुः। वि॒दात्। इष॑म्॥

ऋग्वेद » मण्डल:2» सूक्त:22» मन्त्र:4 | अष्टक:2» अध्याय:6» वर्ग:28» मन्त्र:4 | मण्डल:2» अनुवाक:2» मन्त्र:4


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब जीव विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (नृतो) सबके नचानेवाले (इन्द्र) इन्द्रियादि ऐश्वर्ययुक्त वा उसका भोक्ता (यत्) जो तू (त्यत्) वह (प्रथमम्) प्रथम (पूर्व्यम्) पूर्वाचार्यों ने किया (प्रवाच्यम्) उत्तमता से कहने योग्य (कृतम्) प्रसिद्ध (नर्य्यम्) मनुष्यों में सिद्ध पदार्थ उसको और (दिवि) प्रकाशमय परमेश्वर में (प्रारिणाः) प्राप्त होता और (असुम्) प्राण और (अपः) जलों को (रिणन्) प्राप्त होता हुआ (ओजसा) जल से (अदेवम्) जिसमें प्रकाश नहीं विद्यमान उस (विश्वम्) समस्त वस्तुमात्र को (अभि,विदात्) प्राप्त हो (शतक्रतुः) असंख्य प्रज्ञायुक्त आप (ऊर्जम्) पराक्रम और (इषम्) अन्न को (विदात्) प्राप्त हो उन (तव) आपके सुख (भुवत्) हो ॥४॥
भावार्थभाषाः - हे जीवो! जिस परमेश्वर के निबन्ध से तुम शरीर इन्द्रियों और प्राणों को प्राप्त हुए, उसको सर्व सामर्थ्य से दिन-रात ध्यावो ॥४॥ इस सूक्त में सूर्य्य-विद्युत्-ईश्वर और जीवों के गुण कर्मों का वर्णन होने से इस सूक्त से अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ संगति है, यह जानना चाहिये ॥ । यह बाईसवाँ सूक्त और अट्ठाईसवाँ वर्ग और दूसरा अनुवाक समाप्त हुआ ॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

ऊर्ज व इष की प्राप्ति

पदार्थान्वयभाषाः - १. हे (नृतो) = सबको नृत्य करानेवाले-इस संसार-नेपथ्य में सभी को भिन्न-भिन्न पात्रों के रूप में उपस्थित करनेवाले (इन्द्र) = सर्वशक्तिमन् प्रभो ! (तव) = आपका (त्वत्) = वह प्रसिद्ध (नर्यम्) = नरहितकारी (अपः) = कर्म प्(रथमम्) = अत्यन्त विस्तारवाला है- (पूर्व्यम्) = यह आपका कर्म हमारा पालन व पूरण करनेवाला है [पृ पालनपूरणयोः] (दिवि) = यह सम्पूर्ण द्युलोक में (प्रवाच्यं कृतम्) = अत्यन्त प्रशंसनीय हुआ है। प्रभु का यह ब्रह्माण्ड निर्माणरूप कर्म अत्यन्त अद्भुत व प्रशंसनीय है। यह हमारे हित के लिए है। २. इसमें (यद्) = जब (देवस्य) = उस प्रकाशमय प्रभु के (शवसा) = बल से (असुम्) = प्राणशक्ति को (रिणन्) = प्रेरित करता हुआ (अपः) = कर्मों को (प्रारिणाः) = अपने में प्रेरित करता है- अर्थात् जब तू सदा क्रियाशील बनता है, तो (विश्वम्) = सब आ अदेवम् चारों ओर होनेवाली अदेववृत्तियों को (ओजसा) = अपनी ओजस्विता से (अभिभुवत्) = अभिभूत कर लेता है। इन अदेववृत्तियों को जीतकर (ऊर्जम्) = बल और प्राणशक्ति को (विदात्) = प्राप्त करता है और (शतक्रतुः) = सैकड़ों कर्मों व प्रज्ञानों वाला (इषम्) = प्रभु प्रेरणा को व वाञ्छनीय अन्नों को (विदात्) = प्राप्त करता है।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- प्रभु का गुणगान करनेवाला प्रभु से शक्ति प्राप्त करता है और सब अदेववृत्तियों को अभिभूत करके ऊर्ज व इष को प्राप्त करता है। यही सूक्त का सार है कि हम प्रभु की उपासना से शक्तिसम्पन्न बनें। प्रभु ही सर्वोपरि है।
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ जीवविषयमाह।

अन्वय:

हे नृतो इन्द्र यद्यस्त्वं त्यत्प्रथमं पूर्व्यं प्रवाच्यं कृतं नर्य्यं दिव्यपश्च देवस्य शवसा प्रारिणा भवानसुमपोरिणन्नोजसाऽदेवं विश्वमभिविदाच्छतक्रतुर्भवानूर्ज्जमिषं चाविदात्तस्य तव सुखं भुवत् ॥४॥

पदार्थान्वयभाषाः - (तव) जीवस्य (त्यत्) तत् (नर्यम्) नृषु साधु (नृतो) सर्वेषां नर्त्तयितः (अपः) प्राणान् (इन्द्र) इन्द्रियाद्यैश्वर्ययुक्त भोजक (प्रथमम्) आदिमम् (पूर्व्यम्) पूर्वैः कृतम् (दिवि) प्रकाशमये जगदीश्वरे (प्रवाच्यम्) प्रवक्तुं योग्यम् (कृतम्) निष्पन्नम् (यत्) यः (देवस्य) सर्वस्य प्रकाशकस्य (शवसा) बलेन (प्र) (अरिणाः) प्राप्नोसि (असुम्) प्राणम् (रिणन्) प्राप्नुवन् (अपः) (भुवत्) भवेत् (विश्वम्) सर्वम् (अभि) (अदेवम्) अविद्यमानो देवः प्रकाशो यस्मिँस्तम्। अत्राऽन्येषामपि दृश्यत इत्यकारस्य दीर्घत्वम् (ओजसा) पराक्रमेण (विदात्) प्राप्नुयात् (ऊर्जम्) पराक्रमम् (शतक्रतुः) असंख्यप्रज्ञः (विदात्) प्राप्नुयात् (इषम्) अन्नम् ॥४॥
भावार्थभाषाः - हे जीवा यस्य जगदीश्वरस्य निबन्धेन यूयं शरीराणीन्द्रियाणि प्राणान् प्राप्तास्तं सर्वसामर्थ्येनाहर्निशं ध्यायतेति ॥४॥ । अत्र सूर्य्यविद्युदीश्वरजीवगुणकर्मवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति द्वाविंशं सूक्तमष्टाविंशो वर्गो द्वितीयोऽनुवाकश्च समाप्तः ॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - Indra, lord of light, life and generosity, director of the cosmic dance of creation, that original, ancient act of yours admirable in the light and language of heaven performed for the sake of humanity which, by the omnipotence of Divinity, moves the pranic energies and causes the waters of life to flow may, we pray, with the power and splendour of Divinity, inspire the entire world of matter and energy, conquer impiety and bring us, O lord of a hundred yajnic gifts and actions, food and energy for body, mind and soul.
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आचार्य धर्मदेव विद्या मार्तण्ड

The subject of soul is described.

अन्वय:

The Almighty God keeps all the souls under His check and the power in the human senses are controlled by Him and He is mighty. All the ancient learned persons had praised His noble deeds. All the human efforts are centered in His brilliance and it is He who gifts energy (Pranas), strength and is eliminator. With His power, He gets through all the substances and wherever there is no ray of light ( hope ). His actions and wisdom are unlimited and is Master of bravery and food grains. May His kindness and delight fall on you?

भावार्थभाषाः - O men ! all power in the body, in your senses and breathes move with the dictates of the Almighty. Let you all keep Him in your thoughts and actions.
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे जीवांनो! ज्या जगदीश्वराच्या संरचनेने तुम्ही शरीर, इंद्रिये व प्राण प्राप्त केलेले आहेत, त्याचे सर्व सामर्थ्याने सतत ध्यान करा. ॥ ४ ॥