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सा॒कं जा॒तः क्रतु॑ना सा॒कमोज॑सा ववक्षिथ सा॒कं वृ॒द्धो वी॒र्यैः॑ सास॒हिर्मृधो॒ विच॑र्षणिः। दाता॒ राधः॑ स्तुव॒ते काम्यं॒ वसु॒ सैनं॑ सश्चद्दे॒वो दे॒वं स॒त्यमिन्द्रं॑ स॒त्य इन्दुः॑॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

sākaṁ jātaḥ kratunā sākam ojasā vavakṣitha sākaṁ vṛddho vīryaiḥ sāsahir mṛdho vicarṣaṇiḥ | dātā rādhaḥ stuvate kāmyaṁ vasu sainaṁ saścad devo devaṁ satyam indraṁ satya induḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सा॒कम्। जा॒तः। क्रतु॑ना। सा॒कम्। ओज॑सा। व॒व॒क्षि॒थ॒। सा॒कम्। वृ॒द्धः। वी॒र्यैः॑। स॒स॒हिः। मृधः॑। विच॑र्षणिः। दाता॑। राधः॑। स्तु॒व॒ते। काम्य॑म्। वसु॑। सः। ए॒न॒म्। स॒श्च॒त्। दे॒वः। दे॒वम्। स॒त्यम्। इन्द्र॑म्। स॒त्यः। इन्दुः॑॥

ऋग्वेद » मण्डल:2» सूक्त:22» मन्त्र:3 | अष्टक:2» अध्याय:6» वर्ग:28» मन्त्र:3 | मण्डल:2» अनुवाक:2» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब ईश्वर विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो! जो (क्रतुना) कर्म वा प्रज्ञा और (ओजसा) जल के (साकम्) साथ (जातः) प्रसिद्ध (वीर्यैः) पराक्रम वा विज्ञानादि पदार्थों के (साकम्) साथ (वृद्धः) बढ़ा (सासहिः) अत्यन्त सहनेवाला (विचर्षणिः) विद्या के प्रकाश से युक्त विद्वान् (दाता) दानशील होता हुआ (मृधः) सङ्ग्रामों को (ववक्षिथ) प्राप्त करता है (काम्यम्) प्रिय (वसु) सुखों को बसानेवाले (राधः) धन की (स्तुवते) प्रशंसा करता (सः) वह (सत्यः) अविनाशी (इन्दुः) परमैश्वर्ययुक्त (देवः) सर्वत्र प्रकाशमान जीव (एनम्) इस (सत्यम्) सत्य (इन्द्रम्) परमैश्वर्ययुक्त (देवम्) देदीप्यमान परमेश्वर को (साकम्) साथ (सश्चत्) सम्बन्ध करता अर्थात् अपनी आत्मा से संयुक्त करता है ॥३॥
भावार्थभाषाः - जिसके ज्ञानादि गुणों और उत्क्षेपणादि कर्मों के साथ नित्य सम्बन्ध है, जो विद्या से ज्येष्ठ और अविद्या से कनिष्ठ है, सुख की कामना करता हुआ अनादि अनुत्पन्न अमृत अल्पज्ञ जीवात्मा है, उसको जो शुभाशुभ कर्म फलों के साथ युक्त करता, वह परमेश्वर अखिल जगत् के बीच व्याप्त होता हुआ सबकी रक्षा करता, जीव के साथ ईश का ईश्वर के साथ जीव का व्याप्य व्यापक सेव्य सेवकादि लक्षण सम्बन्ध है, यह जानना चाहिये ॥३॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथेश्वरविषयमाह।

अन्वय:

हे मनुष्या यः क्रतुनोजसा साकं जातः वीर्यैः साकं वृद्धः सासहिर्विचर्षणिर्दाता सन्मृधो ववक्षिथ काम्यं वसु राधः स्तुवते स सत्य इन्दुर्देवो जीव एनं सत्यमिन्द्रं देवं परमेश्वरं साकं सश्चदात्मना संयुनक्ति ॥३॥

पदार्थान्वयभाषाः - (साकम्) सह (जातः) प्रसिद्धः (क्रतुना) कर्मणा प्रज्ञया वा (साकम्) (ओजसा) जलेन। ओज इत्युदकना० निघं० १। १२ (ववक्षिथ) वहति। अत्र पुरुषव्यत्ययः (साकम्) (वृद्धः) (वीर्यैः) पराक्रमविज्ञानादिभिः (सासहिः) अतिशयेन सोढा (मृधः) संग्रामान् (विचर्षणिः) विद्याप्रकाशयुक्तो विद्वान् (दाता) (राधः) धनम् (स्तुवते) प्रशंसति (काम्यम्) प्रियम् (वसु) सुखेषु वासयत्री (सः) (एनम्) (सश्चत्) (देवः) सर्वत्र द्योतमानः (देवम्) देदीप्यमानम् (सत्यम्) नाशरहितम् (इन्द्रम्) (सत्यः) अविनाशी (इन्दुः) परमैश्वर्ययुक्तः ॥३॥
भावार्थभाषाः - यस्य ज्ञानादिगुणैरुत्क्षेपणादिभिः कर्मभिः सह नित्यसम्बन्धः यो विद्यया ज्येष्ठोऽविद्यया कनिष्ठश्च सुखं कामयमानोऽनादिरनुत्पन्नोऽमृतोऽल्पोऽल्पज्ञो जीवात्मास्ति तं यः शुभाऽशुभकर्मफलैर्युनक्ति स परमेश्वरोऽखिलजगतो मध्ये व्याप्तस्सन् सर्वं रक्षति जीवेन सहेश्वरेण सह जीवस्य व्याप्यव्यापकसेव्यसेवकादिलक्षणः सम्बन्धोऽस्तीति वेद्यः ॥३॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - ज्याचा ज्ञान इत्यादी गुण व उत्पेक्षण (उच्च कर्म) नित्य संबंध आहे, जो विद्येने श्रेष्ठ, सुखाची कामना करणारा अनादि, अनुत्पन्न, अमृत, अल्पज्ञ जीवात्मा आहे त्याला शुभाशुभ कर्मफलाबरोबर युक्त करून परमेश्वर संपूर्ण जगात व्याप्त असून सर्वांचे रक्षण करतो. जीवाबरोबर ईशाचा, ईश्वराबरोबर जीवाचा व्याप्य-व्यापक, सेव्य-सेवक संबंध आहे हे लक्षात घेतले पाहिजे. ॥ ३ ॥