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तस्मै॑ तव॒स्य१॒॑मनु॑ दायि स॒त्रेन्द्रा॑य दे॒वेभि॒रर्ण॑सातौ। प्रति॒ यद॑स्य॒ वज्रं॑ बा॒ह्वोर्धुर्ह॒त्वी दस्यू॒न्पुर॒ आय॑सी॒र्नि ता॑रीत्॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tasmai tavasyam anu dāyi satrendrāya devebhir arṇasātau | prati yad asya vajram bāhvor dhur hatvī dasyūn pura āyasīr ni tārīt ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

तस्मै॑। त॒व॒स्य॑म्। अनु॑। दा॒यि॒। स॒त्रा। इन्द्रा॑य। दे॒वेभिः॑। अर्ण॑ऽसातौ। प्रति॑। यत्। अ॒स्य॒। वज्र॑म्। बा॒ह्वोः। धुः। ह॒त्वी। दस्यू॑न्। पुरः॑। आय॑सीः। नि। ता॒री॒त्॥

ऋग्वेद » मण्डल:2» सूक्त:20» मन्त्र:8 | अष्टक:2» अध्याय:6» वर्ग:26» मन्त्र:3 | मण्डल:2» अनुवाक:2» मन्त्र:8


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - (यत्) जो (बाह्वोः) भुजाओं के (वज्रम्) शस्त्र और अस्त्र को धारण (दस्यून्) और भयंकर चोरों को (हत्वी) हननकर (आयसीः) सुवर्ण और लोह के काम की (पुरः) नगरियों को (नि,तारीत्) उल्लङ्घता रहे वह और जिससे (अस्य) इस मेघ के (अर्णसातौ) जल की प्राप्ति के निमित्त (तवस्यम्) जल में उत्पन्न हुआ पदार्थ (अनुदायि) दिया जाए (तस्मै) उस प्रस्तुति प्रशंसा करने और (इन्द्राय) बहुत ऐश्वर्य के देनेवाले के लिये जो (सत्रा) सत्यता से प्रति (धुः) प्रतीति से धारण करें वे सब (देवेभिः) विद्वानों के साथ सुख पाते हैं ॥८॥
भावार्थभाषाः - जो परिधियों के सहित नगरियों को बनाये और भयंकर चोर आदि को निवारण कर विद्वानों के साथ राज्य की पालना करते हैं, वे सत्य सुख को प्राप्त होते हैं ॥८॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

यद्यो बाह्वोर्वज्रं धृत्वा दस्यून् हत्वी आयसीः पुरो नि तारीत् स येनाऽस्यार्णसातौ तवस्यमनुदायि तस्मा इन्द्राय ये सत्रा धुस्ते च देवेभिस्सह सुखं प्राप्नुवन्ति ॥८॥

पदार्थान्वयभाषाः - (तस्मै) स्तावकाय (तवस्यम्) तवसि बले भवम् (अनु) (दायि) दीयेत (सत्रा) सत्येन (इन्द्राय) बह्वैश्वर्यप्रदाय (देवेभिः) (अर्णसातौ) उदकस्य प्राप्तौ (प्रति) (यत्) यः (अस्य) (वज्रम्) शस्त्राऽस्त्रम् (बाह्वोः) (धुः) धरेयुः। अत्राडभावः (हत्वी) हत्वा। अत्र स्नात्व्यादय इतीदं सिध्यति (दस्यून्) भयंकरान् चोरान् (पुरः) नगरीः (आयसीः) सुवर्णलोहनिर्मिताः (नि) (तारीत्) उल्लङ्घयेत् ॥८॥
भावार्थभाषाः - ये सवलयानि नगराणि निर्माय दस्य्वादीन्निराकृत्य विद्वद्भिः सह राज्यं पालयन्ति ते सत्यं सुखमश्नुवते ॥८॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जे कोट उभे करून नगर वसवितात व भयंकर चोर इत्यादींचे निवारण करतात, तसेच विद्वानांसह राज्याचे पालन करतात ते खरे सुख प्राप्त करतात. ॥ ८ ॥